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जैन धर्म की कहानियाँ भाग -८/८१
जिन - शासन के अनुसार सत्य मार्ग के उपदेश के समान महान सत्य दूसरा कोई नहीं । वह स्व- पर समस्त जीवों का हित करने वाला है और अहिंसादि का पोषक है ।
इसलिए हे भव्य जीवो ! ऐसे सत्य जिनधर्म को जान कर, तुम उसका आदर करके जिनमार्ग के अनुसार सत्य ही बोलो । तत्त्व के यथार्थ ज्ञान पूर्वक ही सत्य व्रत का बराबर पालन हो सकता है।
नीच मनुष्य का मुँह साँप के बिल के समान है, उसमें साँप के समान जीभ रहती है । वह असत्य रूपी हलाहल जहर से अनेक जीवों को नष्ट करती है, अनेक जीवों का अहित करती है ।
अरे रे ! विष का भक्षण कर लेना अच्छा, लेकिन अपनी जिह्वा से हिंसा करने वाला, मिथ्या मार्ग का पोषक तथा पाप और दुःख उत्पन्न करने वाला असत्य वचन कभी नहीं बोलना चाहिये ।
इसलिए हे मित्र ! जहर जैसे इस असत्य को तू शीघ्रता से छोड़ दे । असत्य वचन रूपी पाप के फल में जीव गूंगा-बहरा होता है और सत्य के सेवन से ज्ञान, विद्या, चरित्र आदि बढ़ते हैं।
मृत्यु एक अनिवार्य तथ्य है, उसे किसी भी प्रकार टाला नहीं जा सकता। उसे सहज भाव में स्वीकार कर लेने में ही शान्ति है, आनन्द है। सत्य को स्वीकार करना ही सन्मार्ग है। -बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ २५
हिंसादि पापों के त्यागरूप मुनि श्रावक धर्म अहिंसादिरूप है। अहिंसादिरूप चारित्र का आशय मात्र बाह्य हिंसादि प्रवृत्तियों के त्यागरूप ही नहीं, अपितु अंतरंग कषायशक्ति के अभावस्वरूप है, क्योंकि सम्यक्चारित्र का विरोधी कषायभाव है।
- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदयतीर्थ, पृष्ठ १६७