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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८ -८/४४ आत्मा के धर्म को साधने का ऐसा अवसर बारम्बार नहीं मिलता । इसलिए अपना चित्त मोक्षमार्ग में लगाओ । यह संसार तो अनन्तबार भोग चुके हो, उसमें किंचित् भी सुख नहीं है..... इसलिए उससे ममत्व छोड़ कर मुनिधर्म में अपना चित्त स्थिर करो ।” वारिषेण मुनिराज ने. भी ज्ञान-वैराग्य का बहुत उपदेश दिया...... "हे मित्र, अब तुम अपने चित्त को आत्मा की आराधना में स्थिर करो और मेरे साथ मोक्षमार्ग में चलो ।” तब पुष्पडाल ने सच्चे हृदय से कहा- "प्रभो ! आपने मुझे जिनधर्म से पतित होने से बचा लिया है और सच्चा उपदेश देकर. मुझे मोक्षमार्ग में स्थिर किया है | सच्चे मित्र आप ही हो । आपने . धर्म में मेरा स्थितिकरण करके महान उपकार किया है । अब मेरा मन संसार से और इन भोगों से सच में उदासीन हो गया है और आत्मा के रत्नत्रय धर्म की आराधना में स्थिर हो गया है । स्वप्न में भी अब इस संसार की इच्छा नहीं रही, अब तो मैं भी आपकी तरह अन्तर में लीन होकर आत्मा के चैतन्य- वैभव को साघूँगा ।" इस प्रकार पश्चाताप करके पुष्पडाल फिर से मुनिधर्म में स्थिर हो गये और दोनों मुनिवर वन की तरफ चल दिये । [ वारिषेण मुनिराज की यह कहानी हमें यह सिखाती है कि कोई भी साधर्मी धर्मात्मा कदाचित् शिथिल होकर धर्ममार्ग से डिगता हो तो उसका तिरस्कार नहीं करना, अपितु प्रीति पूर्वक उसे धर्ममार्ग में स्थिर करना चाहिये । उसकी सर्व प्रकार से सहायता करके, धर्म में उत्साह बढ़ा कर, जैनधर्म को परम महिमा समझा कर वैराग्यपूर्ण सम्बोधन से किसी भी प्रकार से - धर्म में स्थिर करना चाहिये । उसी प्रकार स्वयं अपने आत्मा को भी धर्म में स्थिर करके, चाहे जितनी भी प्रतिकूलता हो, फिर भी धर्म से थोड़ा भी डिगना नहीं चाहिये। स्थितिकरण अंग के धारक सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा स्व या पर को सन्मार्ग से शिथिल होता जानकर उसका स्थितिकरण करते हैं। रत्नत्रय की साधना में अपने आत्मा को या पर के आत्मा को स्थिर करना ही वास्तव में सम्यक्त्व का स्थितिकरण अंग है । ]
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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