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वात्सल्य अंग में प्रसिद्ध मुनिश्री विष्णुकुमार की कहानी
कपटरहित हो श्रेष्ठ भाव से, यथायोग्य आदर सत्कार। करना अपने सधर्मियों का, सप्तमांग 'वात्सल्य' विचार। इसे पाल कर पाई प्रसिद्धि , मुनिवर श्रीयुत 'विष्णुकुमार'। जिनका यश शास्त्रों के भीतर, गाया निर्मल अपरम्पार॥
लाखों वर्ष पहले भगवान श्री मुनिसुव्रत तीर्थंकर के समय की यह कहानी है । उज्जैन नगरी में उस समय राजा श्रीवर्मा राज्य करता था, उनके बलि इत्यादि चार मन्त्री थे । वे नास्तिक थे, उन्हें सच्चे धर्म की श्रद्धा नहीं थी।
एक बार उस उज्जैन नगरी में सात सौ मुनियों के संघ सहित आचार्य श्री अकम्पन का आगमन हुआ। सभी नगरजन हर्ष से मुनिवरों के दर्शन करने गये । राजा की भी उनके दर्शन करने की इच्छा हुई और उन्होंने मन्त्रियों को भी साथ में चलने को कहा । यद्यपि इन बलि आदि मिथ्यादृष्टि मन्त्रियों की तो जैन मुनियों पर श्रद्धा नहीं थी, फिर भी राजा की आज्ञा से वे भी साथ में चले ।
राजा ने मुनिवरों को वन्दन किया, परन्तु ज्ञान-ध्यान में तल्लीन मुनिवर तो मौन ही थे । उन मुनियों की ऐसी शान्ति और निस्पृहता देख कर राजा बहुत प्रभावित हुआ, परन्तु मन्त्री दुष्ट भाव से कहने लगे- . “महाराज ! इन जैन मुनियों को कोई ज्ञान नहीं है, इसलिए ये मौन रहने का ढोंग कर रहे हैं, क्योंकि 'मौनं मूर्खस्य लक्षणम्' ।" .
इस प्रकार निन्दा करते हुए वे वापस जा रहे थे और उसी समय श्री श्रुतसागर नाम के मुनि सामने से आ रहे थे । उन्होंने मन्त्रियों की बात सुनली, उन्हें मुनिसंघ की निन्दा सहन नहीं हुई । इसलिए उन्होंने उन मन्त्रियों के साथ वाद-विवाद किया । रत्नत्रय धारक श्रुतसागर मुनिराज ने अनेकान्त सिद्धान्त के न्याय से मन्त्रियों की कुयुक्तियों का .