________________
जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/४३ चेलनादेवी समझ गई कि राजकुमार का मन तो वैराग्य में दृढ़ है, अत: उनके आगमन में दूसरा ही कोई हेतु होना चाहिये ।
वारिषेण मुनि के आते ही उनके गृहस्थाश्रम की बत्तीस रानियाँ भी दर्शन के लिए आईं । राजमहल के अद्भुत वैभव को और अत्यन्त सुन्दर ३२ रूप-यौवनाओं को देख कर पुष्पडाल को आश्चर्य हुआ, वे मन ही मन में सोचने लगे – “अरे ! ऐसा राजवैभव और ऐसी रूपवती ३२ रानियाँ होने पर भी यह राजकुमार उनके सामने भी नहीं जाता, उनको छोड़ने के बाद उन्हें याद भी नहीं करता और आत्मा को ही साधने में यह अपना चित्त लगाये रखता है । वाह, धन्य है यह ! और मैं तो एक साधारण स्त्री का मोह भी मन से छोड़ नहीं सका । अरे रे, बारह वर्ष का मेरा साधुपना बेकार चला गया ।"
तब वारिषेण मुनि ने पुष्पडाल से कहा – “हे मित्र ! अब भी यदि तुम्हें संसार का मोह हो तो तुम यहीं रह जाओ ! इस सारे वैभव को भोगो ! अनादि काल से जिस संसार के भोगने पर भी तृप्ति नहीं हुई, अब भी तुम उसे भोगना चाहते हो तो लो, यह सब तुम भोगो !"
LALI
वारिषेण की बात सुन कर पुष्पडाल मुनि अत्यन्त शर्मिन्दा हुये, उनकी आँखें खुल गईं, उनका आत्मा जाग उठा ।
राजमाता चेलना भी अब सब कुछ समझ गई और धर्म में स्थिर करने के लिए उन्होंने पुष्पडाल से कहा- “अहो मुनिराज !