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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/४२ क्रिया करते समय उन्हें अपने घर की याद आती थी, सामायिक करते समय उन्हें बारम्बार पत्नि का स्मरण होता रहता था । . वारिषेण मुनि उनके मन को स्थिर करने के लिए उनके साथ में ही रह कर उन्हें बारम्बार उत्तम ज्ञान-वैराग्य का उपदेश देते थे, परन्तु अभी उनका मनं धर्म में स्थिर हुआ नहीं था । ऐसा करते-करते बारह वर्ष बीत गये । एकबार वे दोनों मुनि भगवान महावीर के समवशरण में बैठे थे । वहाँ इन्द्र प्रभु की स्तुति करते हुए कहते हैं - "हे नाथ ! यह राजभूमि अनाथ होकर आप के विरह में रो रही है और उसके आँसू नदी के रूप में बह रहे हैं।" . अहा ! इन्द्र ने तो भगवान के वैराग्य की स्तुति की, परन्तु जिसका चित्त अभी वैराग्य में पूरी तरह लगा नहीं था- ऐसे पुष्पडाल मुनि को तो यह बात सुन कर ऐसा लगा- "अरे ! मेरी पत्नी भी इस भूमि की तरह बारह वर्ष से मेरे बिना रो रही होगी. और दुःखी हो रही होगी । मैंने बारह वर्ष से उसका मुँह तक देखा नहीं, मुझे भी उसके बिना चैन पड़ता नहीं । इसलिए अब तो चल कर उससे बात कर आयेंगे । थोड़े समय उसके साथ रह कर बाद में फिर से दीक्षा ले लेंगे।" -ऐसा विचार करके पुष्पडाल तो किसी को कहे बिना ही घर की तरफ जाने लगे । वारिषेण मुनि उनकी चेष्टा समझ गये। उनके हृदय में मित्र के प्रति धर्म-वात्सल्य जागा और किसी भी तरह उनको धर्म में स्थिर करना चाहिये- ऐसा विचार करके उनके साथ चलने लगे और पहले राजमहल की ओर गये। पूर्व मित्र सहित मुनि बने राजकुमार को महल की तरफ आते हुए देख कर चेलना रानी को आश्चर्य हुआ अरे, क्या वारिषेण मुनिदशा का पालन नहीं कर सके, इसलिए लौटकर आ रहे हैं ? • -ऐसा उन्हें सन्देह हुआ । उनकी परीक्षा के लिए उन्होंने एक लकड़े. . का आसन और दूसरा सोने का आसन रख दिया, परन्तु वैरागी वारिषेण .. मुनि तो वैराग्य पूर्वक लकड़े के आसन पर ही बैठे, और इससे चतुर
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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