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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२७ इधर उद्दायन राजा एक मुनिराज को देखकर भक्ति पूर्वक आहार दान के लिए पड़गाह रहे हैं । हे स्वामी!............ हे स्वामी!!........हे स्वामी..........!!! . पश्चात् रानी सहित उद्दायन राजा नवधा भक्ति पूर्वक मुनिराज को आहार दान देने लगे । . अरे, लेकिन यह क्या? बहुत से लोग मुनि वेषधारी वासव देव से दूर भागने लगे, बहुतों ने तो अपने चेहरे को कपड़ों से ढक लिया, क्योंकि मुनि के काने-कुबड़े शरीर में भयंकर कोढ़ रोग हुआ था और उसमें से असह्य दुर्गन्ध आ रही थी, हाथ पैर से पीप बह रही थी। . परन्तु राजा का इस पर कोई लक्ष्य नहीं था, वे तो प्रसन्न होकर परम भक्ति से एकचित्त होकर आहार दान दे रहे थे और स्वयं को धन्य मान रहे थे- अहो, रत्नत्रयधारी मुनिराज मेरे आँगन में आये हैं। इनकी सेवा से मेरा जीवन सफल हो गया ।" _ इतने में मुनिराज के पेट में अचानक गड़बड़ी हुई और उनको एकाएक उलटी हुई । वह दुर्गन्ध भरी उलटी राजा-रानी के शरीर पर जा गिरी । अचानक दुर्गन्ध भरी उलटी उनके शरीर पर गिरने से राजारानी को किंचित् भी ग्लानि नहीं हुई और मुनिराज के प्रति जरा भी घृणा नहीं आई, बल्कि अत्यन्त सावधानी पूर्वक वे मुनिराज के दुर्गन्धमय शरीर को साफ करने लगे और उनके मन में ऐसा विचार आया- “अरे रे! हमारे आहार दान में अवश्य कोई भूल हुई होगी, जिस कारण से मुनिराज को इतना कष्ट हुआ.... मुनिराज की पूर्ण सेवा । हम से नहीं हो सकी ।" यहाँ तो राजा ऐसा विचार कर ही रहे थे कि वे मुनि अकस्मात् अदृश्य हो गये और उनके स्थान पर एक देव दिखने लगा । अत्यन्त प्रशंसा पूर्वक वह कहने लगा- “हे राजन् ! धन्य है आपके सम्यक्त्व को और धन्य है आपके निर्विचिकित्सा अंग को । इन्द्र महाराज ने
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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