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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२८ आपके गुणों की बहुत प्रशंसा की थी, वह तो एक ही गुण से ध्यान में आ गई । मुनि का वेष धारण करके मैं ही आपकी परीक्षा करने आया था । धन्य है आपके गुणों को........." ऐसा कहकर देव ने उन्हें नमस्कार किया । . . वास्तव में किसी मुनिराज को कष्ट नहीं पहुँचा- ऐसा जानकर राजा का चित्त प्रसन्न हो गया और वे कहने लगे-“हे देव ! यह मनुष्य शरीर तो स्वभाव से ही मलिन है और रोगों का घर है । यह अचेतन शरीर मलिन हो तो भी उसमें आत्मा का क्या? धर्मी का आत्मा तो सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों से ही शोभित होता है। शरीर की मलिनता देख कर धर्मात्मा के गुणों के प्रति जो ग्लानि करते हैं, उन्हें आत्मा की दृष्टि नहीं होती, परन्तु देह की दृष्टि होती है । अरे, चमड़े के शरीर से ढका हुआ आत्मा अन्दर सम्यग्दर्शन के प्रभाव से शोभायमान हो रहा है, वह प्रशंसनीय है ।" राजा उद्दायन की यह उत्तम बात सुनकर वह देव बहुत प्रसन्न हुआ और उसने राजा को अनेक विद्यायें दी, वस्त्राभूषण दिये, परन्तु उद्दायन राजा को उनकी आकांक्षा कहाँ थी? वे तो सम्पूर्ण परिग्रह छोड़ कर वर्द्धमान भगवान के समवशरण में गये और वहाँ उन्होंने दिगम्बर दीक्षा धारण कर केवलज्ञान प्रगट करके मोक्ष पाया । अहो! सम्यग्दर्शन के प्रताप से वे रत्नत्रय की साधना पूर्ण कर सिद्ध हुए, उन्हें हमारा नमस्कार हो । [यह छोटी-सी कहानी हमें इतना बड़ा बोध देती है कि धर्मात्माओं के शरीरादि को अशुचि देखकर भी उनके प्रति घृणा नहीं करें, उनके सम्यक्त्वादि पवित्र गुणों का बहुमान करें। __. जो बगुले के समान ध्यान करनेवाले ऊपर से धर्मात्मा नजर आते हैं, वे परीक्षा करने पर असफल हो जाते हैं । सच्चे ज्ञानियों का समागम मिलना तो कल्पवृक्ष के समान दुर्लभ एवं सुखदायी है । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि का बाह्य आचरण कभी-कभी समान भी नजर आता है, लेकिन समय आने पर भेद प्रगट हुए बिना नहीं रहता।]
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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