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________________ 3 निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध उद्दायन राजा की कहानी रत्नत्रय से जो पवित्र हो, स्वाभाविक अपवित्र शरीर । उसकी ग्लानि कभी न करना, रखना गुण पर प्रीति सधीर ।। 'निर्विचिकित्सिा' अंग तीसरा, यह सुजनों को प्यारा है। पहले 'उद्दायन' नरपति ने, नीके इसको धारा है || सौधर्म स्वर्ग में देव सभा चल रही थी और इन्द्र महाराज देवों को सम्यग्दर्शन की महिमा समझा रहे थे - " अहो देवो ! सम्यग्दर्शन में आत्मा का कोई अपूर्व सुख होता है । इस सुख के सामने स्वर्ग के वैभव की कोई गिनती नहीं है । इस स्वर्ग लोक में साधु दशा नहीं हो सकती, परन्तु सम्यग्दर्शन की आराधना तो यहाँ पर भी हो सकती है । मनुष्य तो सम्यग्दर्शन की आराधना के पश्चात् चारित्र दशा भी प्रगट करके मोक्ष पा सकते हैं। सच में, जो जीव निःशंकता, नि: कांक्षिता, निर्विचिकित्सा इत्यादि आठ अंग सहित सम्यग्दर्शन के धारक होते हैं, वे धन्य हैं । इसलिए सम्यग्दृष्टि जीवों की हम यहाँ स्वर्ग में भी प्रशंसा करते हैं । इस समय कच्छ देश में उद्दायन नामक राजा अभी सम्यग्दर्शन से सुशोभित हैं और सम्यग्दर्शन के आठ अंगों का वे पालन करते हैं, उसमें भी निर्विचिकित्सा अंग का पालन करने में वे बहुत दृढ़ हैं। मुनिवरों की सेवा में वे इतने तत्पर हैं कि कैसे भी रोगादि हों तो भी वे ज़रा भी जुगुप्सा नहीं करते और घृणा बिना परम भक्ति से धर्मात्माओं की सेवा करते हैं । धन्य है उन्हें, अहो ! उन चरमशरीरी को ।" राजा के गुणों की ऐसी प्रशंसा सुनकर वासव नामक एक देव के मन में उन्हें देखने की इच्छा हुई और वह स्वर्ग से उतरकर मनुष्य लोक में आया ।
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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