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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२२ के विषय-भोगों की उसे थोड़ी भी आकांक्षा नहीं है, सांसारिक भोगों के प्रति उसका चित्त बिल्कुल नि:कांक्ष है । अतः शील की रक्षा करने के लिए जो भी दुःख उसे भोगने पड़े, उससे वह भयभीत नहीं हुई । अहा ! जिसका चित्त नि:कांक्ष होता है, वह भयभीत होने पर भी संसार के सुख की क्यों इच्छा करेगा? जिसने अपने आत्मा में ही परम सुख का निधान देखा है, वह धर्मात्मा धर्म के फल में सांसारिक वैभव / सुख की स्वप्न में भी इच्छा नहीं करता - ऐसा नि:कांक्ष होता है । अनन्तमती ने भी शील गुण की दृढ़ता से संसार के सभी वैभव की आकांक्षा छोड़ दी थी, अतः किसी भी वैभव से ललचाये बिना वह शील में अटल रही । अहो, स्वभाव के सुख के सामने संसार के सुख की आकांक्षा कौन करेगा? सच देखा जाय तो संसार के सुख की आकांक्षा छोड़ कर नि:कांक्ष होती हुई अनन्तमती की यह दशा ऐसा सूचित करती है कि उसके परिणाम का रुख स्वभाव की ओर झुक रहा है । ऐसे धर्म-सन्मुख जीव संसार के दुःख से कभी डरते नहीं और अपना धर्म कभी छोड़ते नहीं, परन्तु अन्य संसारी जीव संसार के सुख की इच्छा से अपने धर्म में अटल रह सकते नहीं, दुःख से डर कर वे अपने धर्म को छोड़ देते हैं । जब कामसेना ने जान लिया कि अनन्तमती उसको किसी भी प्रकार से प्राप्त नहीं हो सकती, तब उसने बहुत धन लेकर सिंहरत्न नामक राजा को सौंप दिया । अब बेचारी अनन्तमती मानो मगर के मुँह से निकल कर सिंह के जबड़े में जा पड़ी । वहाँ उस पर और नई मुसीबत आ गई । दुष्ट सिंह राजा भी उस पर मोहित हो गया, परन्तु अनन्तमती ने उसका भी तिरस्कार किया । तब विषयान्ध बनकर वह पापी सिंह राजा अभिमान पूर्वक उस सती पर बलात्कार करने तैयार हुआ. .. परन्तु एक क्षण में उसका
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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