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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२१ गया और कहने लगा- हे देवी ! अपने हृदय में मुझे स्थान दे और मेरा यह अपार वैभव तू भोग।" उस पापी की बात सुनकर अनन्तमती स्तब्ध रह गई...... “अरे ! अब यह क्या हो गया ?" वह सेठ को समझाने लगी- अरे सेठ ! आप तो मेरे पितातुल्य हैं । दुष्ट भील के पास से यहाँ आई तो समझने लगी थी कि मेरे पिता मुझे मिल गये और आप मुझे मेरे घर पहुँचायेंगे । अरे ! आप भले आदमी होकर भी ऐसी नीच बात क्यों कर रहे हो? यह आपको शोभा नहीं देती, इसलिए इस पाप-बुद्धि को छोड़ दीजिये ।” बहुत समझाने पर भी दुष्ट सेठ नहीं समझा तो अनन्तमती ने विचार किया कि इस दुष्ट पापी का हृदय विनय-प्रार्थना से नही पिघलेगा। इसलिए क्रोधित होकर उस सती ने कहा- "अरे दुष्ट कामान्ध! दूर हो जा मेरी आँखों के सामने से, मैं तेरा मुख भी देखना नहीं चाहती।" उसका क्रोध देख कर सेठ भी भयभीत हुआ और उसकी अक्ल ठिकाने आ गई, परन्तु बदले की भावना से क्रोधित होकर उसने अनन्तमती को कामसेना नामक वेश्या को सौंप दिया । अरे ! कहाँ उत्तम संस्कार वाला माता-पिता का घर, और कहाँ यह निकृष्ट वेश्या का घर । अनन्तमती के अन्त:करण में वेदना का पार नहीं रहा, परन्तु अपने शीलव्रत में वह अडिग रही । संसार के वैभव को देखकर वह बिल्कुल. ललचायी नहीं । ऐसी सुन्दरी प्राप्त होने से कामसेना वेश्या अत्यन्त खुश हुई और अब मैं बहुत धन कमाऊँगी- ऐसा समझ कर वह अनन्तमती को भ्रष्ट करने का प्रयत्न करने लगी । उसने अनन्तमती से अनेक प्रकार की कामोत्तेजक बातें की, बहुत लालच दिखलाया तथा न मानने पर बहुत दुःख दिया, परन्तु अनन्तमती अपने शीलधर्म से रंच मात्र भी डिगी नहीं। कामसेना ने तो ऐसी आशा की थी कि इस युवती का व्यापार करके वह बहुत धन कमायेगी, लेकिन उसकी आशा के ऊपर पानी फिर गया । उस बेचारी विषय-लोलुपी बाई को क्या मालूम था कि उस युवती कन्या ने तो धर्म के लिए ही अपना जीवन अर्पित किया है और संसार ..
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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