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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/२० उसके मन में विचार आया कि यह कोई वनदेवी दिखाई देती है, ऐसी अद्भुत सुन्दरी मुझे दैवयोग से मिली है । वह उसे घर ले गया । घर पहुँच कर वह कहने लगा- “हे देवी ! मैं तुझ पर मुग्ध हो गया हूँ और मैं तुझे अपनी रानी बनाना चाहता हूँ........ तू मेरी आशा पूरी कर ।" - - निर्दोष अनन्तमती उस कामी भील राजा की बात सुनकर बहुत घबड़ायी, पर विचार करने लगी- “अरे मैं शीलव्रत की धारक..... और मुझ पर यह क्या हो रहा है? पूर्व में किन्हीं गुणीजनों के शील पर अवश्य मैंने झूठा कलंक लगाया होगा अथवा उनका अनादर किया : होगा । उस दुष्ट कर्म के कारण जहाँ भी जाती हूँ, वहाँ मेरे ऊपर ऐसी विपत्ति आ रही है, परन्तु अब मैंने वीतराग धर्म की शरण ली है, इसके प्रताप से शीलव्रत से मैं डगमगाऊँगी नहीं । भले ही प्राण चले जायें, परन्तु मैं अपने शील को नहीं छोडूंगी ।" . तब उसने भील से कहा- “अरे दुष्ट! अपनी दुबुद्धि को छोड़। . तेरे वैभव से मैं ललचाने वाली नहीं हूँ। तेरे वैभव को मैं धिक्कारती हूँ।" - अनन्तमती की यह दृढ़ बात सुनकर भील राजा को गुस्सा आया और वह निर्दयता पूर्वक उस पर बलात्कार करने तैयार हुआ । इतने में अचानक मानो आकाश फाड़ कर एक महादेवी वहाँ प्रगट हुई । उस देवी का तेज वह दुष्ट भील सहन नहीं कर सका, उसके होश उड़ गये और वह हाथ जोड़ कर क्षमा याचना करने लगा। देवी ने कहा- “यह महान शीलव्रतवती सती है । यदि तू उसे जरा भी सतायेगा तो तेरी मौत आ जायेगी ।" ... तथा अनन्तमती पर हाथ रख कर उसने कहा- बेटी धन्य है तेरे शील को, तू निर्भय रह । शीलवती सती को एक बार भी कोई दोष लगाने में समर्थ नहीं।” इतना कहकर वह देवी अदृश्य हो गई। भयभीत होकर उस भील ने अनन्तमती को गाँव के एक सेठ को बेच दिया । वह सेठ प्रथम तो कहने लगा कि वह अनन्तमती को उसके घर पहुँचा देगा, परन्तु वह भी अनन्तमती का रूप देख कर कामान्ध हो
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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