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________________ जैन धर्म की कहानियाँ भाग-८/१९ तब बालिका अनन्तमती ने कहा- ठीक है, मैं भी शीलव्रत अंगीकार करती हूँ। ASCIITITIEATE FONTANTRIronow i n इस प्रसंग के बाद अनेक वर्ष बीत गये । अनन्तमती अब युवती हो गई, उसका यौवन सोलह कलाओं के समान खिल उठा । रूप के साथ उसके धर्म के संस्कार भी वृद्धिंगत हो गये । ... ... एक बार सखियों के साथ वह बगीचे में घूमने गई और एक झूले पर झूल रही थी। उसी समय आकाशमार्ग से एक विद्याधर राजा जा रहा था । वह अनन्तमती के अद्भुत रूप को देखकर मोहित हो गया, इसलिए वह उसे उठा कर विमान में ले गया, परन्तु इतने में उसकी रानी वहाँ आ पहुँची तो घबरा कर विद्याधर ने अनन्तमती को एक भयंकर वन में छोड़ दिया । ऐसे घोर वन में पड़ी हुई अनन्तमती भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगी और कहने लगी-"अरे ! इस वन में मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? यहाँ कोई मनुष्य भी तो दिखाई नहीं देता ।" से थोड़ी देर पश्चात् वह पूर्व संस्कारवश पंच परमेष्ठी भगवन्तों का स्मरण करने लगी। - दुर्भाग्य से उस वन का भील राजा शिकार करने के लिए वहाँ आया, उसने अनन्तमती को देखा और वह उस पर मोहित हो गया।
SR No.032257
Book TitleJain Dharm Ki Kahaniya Part 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHaribhai Songadh, Vasantrav Savarkar Rameshchandra Jain
PublisherAkhil Bharatiya Jain Yuva Federation
Publication Year2013
Total Pages100
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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