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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५५ आचार्य महाविद्वान हैं और उनके सामने टिककर उनको हरा सके ऐसा कोई विद्वान इस समय अपनी उज्जैन नगरी में नहीं हैं। अरे! अरे! महारानी ने तो कठोर प्रतिज्ञा लेकर अन्न-पानी भी छोड़ दिया है। हम सब भी प्रतिज्ञा करते हैं कि जबतक महारानी अन्न-जल ग्रहण नहीं करेंगी, तबतक हमारे भी अन्न-जल का त्याग है।
(सब विचारमग्न बैठ जाते हैं। निस्तब्ध शान्ति छा जाती है। थोड़ी ही देर बाद आकाश में से निम्न प्रकार की ध्वनि होती है:“धर्मबन्धुओ! चिंता मत करो । जैनधर्म की महान प्रभावना करे- ऐसे एक समर्थ विद्वान अभी तुम्हारी नगरी में आकर पहुँचने वाले हैं।" यह आकाशवाणी सुनकर सब हर्षित हो जाते हैं।)
संघपति : अहो, देखो! देखो!! आकाश में से देवता भी जैनधर्म के विजय की भविष्यवाणी कर रहे हैं, इसलिए हमें अब चिंता छोड़कर महारानीजी को शीघ्र ही यह बधाई-सन्देश पहुँचाना चाहिए और उस प्रभावशाली विद्वान के महा-स्वागत की तैयारी करनी चाहिए।
श्रोता : हाँ चलो।
(सब अन्दर पर्दे के पीछे जाते हैं। बैण्ड बाजे सुनाई देते हैं। बाजे सहित स्वागत करते हुए अकलंक को मंच पर लाते हैं। अकलंक और सघंपति उच्चासन पर बैठते हैं।)
___ संघपति : पधारिये विद्वान! पधारिये!! आप जैसे प्रभावशाली साधर्मी को देखकर हमें बहुत ही आनन्द हो रहा है, कृपया आप अपना परिचय देने की कृपा करें।
अकलंक : मेरा नाम अकलंक है। मैं अरहंतदेव का परमभक्त हूँ। मान्यखेट नगरी के राजमंत्री का मैं पुत्र हूँ। मेरे छोटे भाई का नाम निकलंक था। हम दोनों ने अपना सारा जीवन जैन-शासन की सेवा में समर्पित कर दिया था। मेरे भाई निकलंक का तो एकांती लोगों ने बलिदान ले लिया और अब जैन-शासन की सेवा का बाकी रहा काम पूरा करने के लिए मैं देश-विदेश में भ्रमण कर रहा हूँ। यहाँ आप