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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५४ (जिनकुमार हाँफते-हाँफते आते हैं।)
संघपति : पधारो! पधारो कुंवरजी! कैसे आज अचानक पधारना हुआ?
जिनकुमार : संघपतिजी. मेरी माताजी ने एक विशेष सन्देश देने के लिए मुझे आपके पास भेजा है।
संघपति : कहो, माताजी का क्या सन्देश है?
जिनकुमार : आप सब जानते हैं कि प्रतिवर्ष हम जिनेन्द्र भगवान की रथयात्रा निकलाते हैं, परन्तु इस बार अजिनमती माता ने बीच में आकर हठ धारण कर लिया है कि जैनों का रथ पहले न निकले, उनके एकांतधर्म का रथ पहले निकले।
सब (एक साथ) : (चौंककर) अरे! फिर क्या हुआ?
जिनकुमार : अत: महाराज साहब ने ऐसा निश्चित किया है कि जैनों और एकांतियों का राज्यसभा में वाद-विवाद हो और उसमें जो जीत जाये, उसी का रथ पहले निकले। हमने यह चुनौती स्वीकार कर ली है अर्थात् अब कल एकांती आचार्य संघश्री के साथ वाद-विवाद कर सके- ऐसे किसी समर्थ विद्वान को अपनी ओर से तैयार करना है और इसलिए ही मेरी माताजी ने मुझे आपके पास भेजा है।
संघपति : अरे, यह तो जैन-शासन की प्रतिष्ठा का सवाल है।
जिनकुमार : जी हाँ! इसीलिए मेरी माताजी ने प्रतिज्ञा की है कि जबतक एकांती गुरु को हराकर जैनों का रथ पहले चलवावे - ऐसा कोई विद्वान न आये, तबतक मैं आहार नहीं लूँगी और इस समय वे जिनमन्दिर में भगवान के सामने ध्यान में बैठी हैं।
सब (एकसाथ) : अरे! अरे! महारानी ने ऐसी कठोर प्रतिज्ञा कर ली है।
संघपति : (उलझन के साथ) अरे! एकांतियों के संघश्री