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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५६ सब साधर्मी भाइयों को देखकर मुझे बहुत आनन्द हो रहा है। यहाँ का संघ सब प्रकार से कुशल तो है ?
संघपति : भाई! क्या बताऊँ? अब तक तो हमारा संघ बड़ी भारी चिंता में था, परन्तु अब आपके पधारने से सारी चिंता दूर हो गई है।
अकलंक : ऐसी वह बड़ी भारी चिंता क्या थी?
संघपति : सुनिये भाई! यहाँ कल जैनधर्म की महान रथयात्रा निकलनी है, लेकिन यहाँ की अजिनमती रानी ने हठ ठान लिया है कि पहले एकांती का रथ निकलेगा, फिर जैनों का। अब राजा साहब के आदेशानुसार यदि संघश्री आचार्य को हम वाद-विवाद में जीत सकें तो ही अपनी रथयात्रा पहले निकल सकती है, परन्तु हमारी उज्जैन नगरी में ऐसा कोई विद्वान नहीं है कि जो एकांती गुरु को हरा सके, इसलिए हम महान चिंता में पड़े हुए थे और महारानी सहित हम सबने अन्न-जल का त्याग कर दिया था। तभी आकाश से ऐसी आवाज करके जैनधर्म की भक्त देवी ने आपके आगमन की पूर्व सूचना दी, अब आपके जैसे समर्थ विद्वान के पधारने पर हमारी सारी चिंता दूर हो गई है। हमें पूर्ण विश्वास है कि आप संघश्री आचार्य को वाद-विवाद में अवश्य जीत लेंगे और जैनधर्म के विजय का डंका बजायेंगे।
अकलंक : (उत्साह से छाती ठोककर) वाह! वाह!! यह तो मेरा ही काम है। मैं तो ऐसे ही मौके की तलाश में था। एकांती के संघश्री आचार्य तो क्या, साक्षात् उनके भगवान भी आ जाएँ तो भी वे वाद-विवाद में टिक नहीं सकेंगे।
_(सब हर्षपूर्वक एक साथ बोल उठते हैं:- वाह! वाह! बोलिए जैनधर्म की जय!!)
संघपति : ठीक! तो फिर अपनी ओर से ये अकलंककुमार वाद-विवाद करेंगे -यह समाचार हम संघश्री को दे आते हैं।