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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५१ छड़ीदार : अजिनमती महारानी के पुत्र अजिनकुमार पधार रहे हैं। (अजिनकुमार तेजी से हांफते-हांफते प्रवेश करते हैं।)
अजिनकुमार : प्रणाम पिताजी! मेरी माताजी अजिनमती प्रार्थना करती हैं कि हमारे एकांत धर्म के महान आचार्य संघत्री उज्जैन नगरी में पधारे हुए हैं, इसलिए उनकी खुशहाली हेतु हमारे भगवान की एक विशाल रथयात्रा निकलवाने की हमारी भावना है, अत: आप हमें उसके लिए आज्ञा दीजिए।
राजा : बहुत अच्छा, पुत्र! खुशी से निकालो।
अजिनकुमार : परन्तु पिताजी! मेरी माताजी ने साथ-साथ यह भी कहलवाया है कि जैनों की रथयात्रा तो प्रतिवर्ष निकलती ही है, अत: इस बार हमारा रथ पहले निकले और जैनों का स्थ बाद में निकले -ऐसी आप आज्ञा देवें। .
नगरसेठ : (आश्चर्य से) हे! हे!! ऐसी कैसी प्रार्थना?
जिनकुमार : (करुण होकर) पिताजी! पिताजी!! इसमें तो जैनधर्म का अपमान होता है। आप आज्ञा मत दीजियेगा। मेरी माता जैनधर्म का अपमान नहीं सह सकेगी।
अजिनकुमार : (कटाक्ष से) हाँ! और मेरी माता भी एकांत धर्म का अपमान सहन नहीं कर सकेगी।
राजा : (सिर पर हाथ रखकर) यह तो बड़ी समस्या पैदा हो गई। एक रानी जैनधर्म का पक्ष लेती है और दूसरी रानी एकांत धर्म का पक्ष लेती है। मेरे लिए तो दोनों रानियाँ एक सी हैं। अब मैं क्या करूँ? इसका हल किसप्रकार खोचूँ? मंत्रीजी! इसका कोई रास्ता निकालो।
मंत्री : (थोड़ी देर विचार करके) महाराज! इसका एक उपाय मुझे सूझता है।