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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/५० (राजकुमार आ रहे हैं। उनके हाथ में गन्धोदक का पात्र है।)
जिनकुमार : प्रणाम पिताजी! लीजिए यह जिनेन्द्र भगवान का गन्धोदक।
(राजा खड़े होकर हाथ से गन्धोदक लेकर अपने मस्तक पर लगाते हैं।)
जिनकुमार : पिताजी! आज अष्टान्हिका का उत्सव पूरा हो रहा है और प्रतिवर्ष इस उत्सव की पूर्णता के हर्ष में मेरी माताजी जिनेन्द्र भगवान की महान रथयात्रा निकलवाती हैं; उसीप्रकार इस वर्ष भी वैसी ही भव्य रथयात्रा निकलवाने के लिए आपसे आज्ञा चाहती हैं।
राजा : पुत्र! भगवान की रथयात्रा निकलवाने में मेरी आज्ञा कैसी? मैं तो भगवान का सेवक हूँ। खुशी से रथयात्रा निकालो और सारी उज्जैन नगरी में घुमाकर धर्म की प्रभावना करो।
मंत्रीजी! इस सुअवसर में सारी उज्जैन नगरी को सजाने का प्रबन्ध करो।
मंत्री : जैसी आज्ञा महाराज!
नगरसेठ : अहो! प्रतिवर्ष महाराजा की जिनमती महारानी इस रथयात्रा को निकलवाती हैं, यह उज्जैन नगरी के लिए बहुत ही भव्य और आनन्द का प्रसंग है।
सेनापति : अरे, इस रथयात्रा को देखने के लिए तो देशविदेश से लाखों श्रद्धालु इस उज्जैन नगरी में आते हैं।
खजांची : और इस अवसर पर तो अपने राज्य भंडार से करोड़ों स्वर्ण मुद्राओं का उपयोग भी होता है और रत्नजड़ित स्वर्णरथ में विराजमान जिनेन्द्र भगवान का अद्भुत वैभव देखकर नगरी के अनेक जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जैनधर्म अंगीकार करते हैं।
राजा : निश्चित ही यह रथयात्रा तो उज्जैन नगरी की शोभा है।