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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३८ । गुरु : (हंसकर) वाह रे, अकलंक-निकलंक! तुम पढ़ने में तो बहुत चतुर हो। सच बताओ तुम कौन हो? तुम जैन हो?
अकलंक : महाराज, आपकी बात सत्य है। अब जब भेद खुल ही गया है तो हमें भी कुछ छिपाना नहीं है। हम जैन ही हैं और अरहंतदेव के परम भक्त हैं।
गुरु : देखो बालको! जो हो गया, सो हो गया। अभी भी तुमको बचने का एक उपाय बताता हूँ। यदि तुम जैनधर्म छोड़कर हमारा धर्म अंगीकार करने तैयार हो जाओ तो मैं तुम्हें छोड़ दूंगा, अन्यथा तुमको मृत्यु-दण्ड की सजा दूंगा।।
निकलंक : देह जाए तो भले ही जाए, परन्तु हम अपने प्रिय जैनधर्म को कभी भी नहीं छोड़ेंगे। जैनधर्म हमें प्राणों से प्यारा है। “सिर जावे तो जावे मेरा जैनधर्म नहीं जावे' विश्व के किसी भी भय से डरकर हम अपने जैनधर्म को छोड़नेवाले नहीं हैं। जैनधर्म की खातिर ये प्राण जाएँ या रहें, इसकी हमें चिंता नहीं है।
गुरु : ठीक है। जाओ गुप्तचर! इस समय तो इन दोनों को जेल में डाल दो और सारी रात वहाँ कठोर पहरा रखना। प्रात:काल होते ही राजा की आज्ञा लेकर इनको फांसी पर लटका देंगे।
(गुप्तचर दोनों को ले जाता है और जेल में डाल देता है। जेल के अंधेरे में दोनों भाई बातचीत कर रहे हैं, बाहर पहरेदार खड़े हैं।)
निकलंक : भैया! हम बहुत कठिन परिस्थिति में पड़ गये हैं। अब इसमें से निकलना बहुत कठिन है।
अकलंक : धैर्य रखो भाई, धैर्य रखो! जिनेन्द्र भगवान अपने जीवन में सदा सहयोगी हैं। जैन-शासन का प्रभाव अभी तप रहा है, इसलिए अवश्य ही कुदरत हमारी मदद करेगी।