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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ६/३६
निकलंक : अहो भैया ! ऐसे बड़े संकट के प्रसंग में भी आप ऐसा महान धैर्य रख सकते हो। यह महा आश्चर्य की बात है।
अकलंक : भाई ! जैन- शासन की कोई ऐसी अचिन्त्य महिमा है कि सुख में हो या दुःख में हो वह सभी प्रसंगों में जीव को शरणभूत है।
निकलंक : अहो ! जैन- शासन के लिए हमने अपना जीवन समर्पित किया, जैन- शासन के खातिर हम घरबार छोड़कर यहाँ आए, जैन - शासन के लिए ही जान जोखिम में डालकर यहाँ विद्याध्ययन किया और अब जैन - शासन के प्रचार की हमारी भावना क्या अधूरी ही रह जाएगी ?
अकलंक : भाई ! इस समय यह बात और यह दुःख भूल जाओ। अब तो बस अंतर की आराधना करो और ऐसी समाधि की भावना भाओ कि कदाचित् इस उपद्रव के प्रसंग में अपनी मृत्यु हो जाए तो हमारे अन्न-पानी का त्याग है और यदि इस संकट से छूट गये तो हमारा सारा जीवन जैनधर्म के लिए अर्पित है।
निकलंक : हाँ भाई ! आपकी बात उत्तम है। मैं भी ऐसी प्रतिज्ञा करता हूँ कि जबतक इस संकट से नहीं उबरेंगे, तबतक आहार- पानी का त्याग है और यदि इससे छूट गये तो हमारा सम्पूर्ण जीवन जैनधर्म की सेवा हेतु समर्पित है।
पहला पहरेदार : अरे! ये राजकुमार जैसे धर्म के प्रेमी दोनों बालक कितने प्रिय हैं- ऐसे निर्दोष बालकों को प्रात: काल प्राण- दण्ड दिया जाएगा। अरे.....कुदरत कैसी है !
दूसरा पहरेदार : भैया ! हमें भी बहुत दुख हो रहा है, लेकिन हम इसमें क्या कर सकते हैं।
निकलंक भैया! मुझे एक स्तुति बोलने की इच्छा हो
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रही है।