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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३७ पाँचवां दृश्य:
(दो खाटें बिछी हुई हैं। अकलंक-निकलंक बैठे हैं और बातचीत कर रहे हैं।)
निकलंक : भाई! हमारी युक्ति तो सही-सही पूरी हो गई है, परन्तु अब हमें बहुत सावधानी से रहना पड़ेगा, क्योंकि गुरु को जैनों की गन्ध आ गई है, इसलिए उसे पकड़ने के लिए वह आकाश-पाताल एक कर देंगे।
_ अकलंक : भाई! अभी जिन-शासन का पुण्य तप रहा है, जिनेश्वरदेव के प्रताप से हमें कुछ भी बाधा नहीं आयेगी। चलो, हम अपने अपने मन में जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करके सो जाएँ।
(दोनों हाथ जोड़कर थोड़ी देर स्तुति करते हैं, बाद में सो जाते है, अंधेरा होता है। काले वेश में एक गुप्तचर आकर चुपचाप इनके कमरे के पास बैठ जाता है। थोड़ी देर में अचानक एक जोरदार धमाके का कोलाहल होता है। पर्दे में से विद्यार्थियों का शोर सुनाई देता है। अकलंक-निकलंक भी चौंककर जाग जाते हैं "अरहंत-अरहंत'' बोलने लगते हैं)
निकलंक : क्या हुआ भाई! एकाएक यह क्या हुआ?
गुप्तचर : दुष्टो! तुमने अरहंत का नाम बोला, इससे मैं समझ गया हूँ कि तुम जैन हो। चलो गुरु के पास। अभी वे तुम्हारी खबर लेंगे।
(दोनों को पकड़कर ले जाते हैं। गुरु बैठे हैं। वहां गुप्तचर अकलंक-निकलंक को लेकर आते हैं)
गुप्तचर : महाराज! जिस समय कोलाहल हुआ था, उस समय ये दोनों विद्यार्थी अरहंत का नाम ले रहे थे, इसलिए मैं इनको आपके पास ले आया हूँ।