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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३१ (फिर सभी इकट्ठे होकर अपना पाठ दोहराते हैं।)
गुरु : शिष्यो! आज हमको कल के जैनधर्म का शेष प्रकरण सीखना है। .
अकलंक : गुरुजी! आज आपका सिर तो नहीं दुख रहा है न?
गुरु : नहीं, आज तो ठीक है। (गुरु पुस्तक खोलकर पढ़ते हैं) 'जीव: अस्ति, जीव: नास्ति।' (चौंककर पुन: पढ़ते हैं।) अरे! इसमें तो 'स्यात्' शब्द लिखा है:- ‘जीव: स्यात् अस्ति, जीव: स्यात् नास्ति।'
एक शिष्य : ‘स्यात्' का अर्थ क्या होता है? गुरुजी!
गुरु : ‘जीव: स्यात् अस्ति' अर्थात् जीव किसी अपेक्षा से अस्तिरूप है और ‘जीव: स्यात् नास्ति' अर्थात् जीव किसी अपेक्षा से नास्तिरूप है।
दूसरा शिष्य : वाह, आज तो अच्छी तरह अर्थ समझ में आ गया।
गुरु : सही बात है। कल ‘स्यात्' शब्द रह जाता था, इसलिए अर्थ में गड़बड़ होती थी, परन्तु अब तो 'स्यात्' शब्द आ जाने से अर्थ समझ में आता है। जैन कहते हैं कि 'जीव स्यात् नित्य है और