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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३२ स्यात् अनित्य है' – इस प्रकार वे एक ही वस्तु को नित्य भी और अनित्य भी कहते हैं। सभी की समझ में आया?
शिष्य : (सिर हिलाकर) जी हाँ, जी हाँ।
(घंटी बजती है। सारे शिष्य जाते हैं। गुरु महाराज अकेले विचारमग्न बैठे हैं।) 1
गुरु : अरे, गजब हो गया। इस पुस्तक में ‘स्यात्' शब्द आया कहाँ से? (पुस्तक के ऊपर हाथ पटककर) अवश्य किसी जैन का ही यह काम है। मैं भी जिस शब्द को नहीं समझ सका और जिसका मेल मिलाने के लिए मेहनत करते-करते मेरा सिर दुख गया और फिर भी मैं उसकी सन्धि नहीं मिला सका, वह सन्धि मात्र एक स्यात्' शब्द लिखकर किसी जैन विद्यार्थी ने मिला दी है। अवश्य यह कोई अत्यंत बुद्धिमान है। इसके सिवाय दूसरे का यह काम हो ही नहीं सकता, अवश्य इस विद्यालय में कपट से हमारा वेश धारण करके कोई जैन घुस आया है। खैर, कोई परेशानी की बात नहीं है, मैं किसी भी उपाय से पकड़कर उसे फांसी पर चढाऊँगा।
(जोर से) सिपाही! ओ सिपाही!! सिपाही : जी साहब! गुरु : जाओ! तुरन्त इसी समय इन्स्पेक्टर को बुलाकर लाओ। (सिपाही जाता है, थोड़ी ही देर में इंस्पेक्टर आता है।)
इंस्पेक्टर : नमस्ते महाराज! फरमाइये, इस सेवक को क्या आज्ञा है?
गुरु : देखो! अपने विद्यालय में चोरी-छिपे कोई जैन घुस आया है, उसे हमें किसी भी उपाय से पकड़ना है।
इंस्पेक्टर : परन्तु स्वामीजी, हम उसे कैसे पहचानेंगे? __ गुरु : मैंने उसके लिए एक दो युक्तियाँ सोच रखी हैं और तुम भी उसे पकड़ने की युक्ति में रहना।