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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/३० अकलंक : भाई! गुरु किसलिए भाग गये, इसका तुझे पता है? निकलंक : हाँ, पता है, उनका सिर दुख रहा था।
अकलंक : नहीं, नहीं। सिर दुखने का तो बहाना था। वास्तव में तो जैन सिद्धांत का अर्थ वे स्वयं ही समझ नहीं पा रहे थे, इसलिए झुंझलाकर चले गये। यहाँ आओ, मैं तुमको उनकी भूल समझाता हूँ
(दोनों गुरु की मेज के पास जाकर पुस्तक देखते हैं) अकलंक : इसे पढ़ो, यह क्या लिखा है?
निकलंक : 'जीव: अस्ति, जीव: नास्ति'। भाई! इसमें ‘स्यात्' शब्द तो छूट ही गया है।
अकलंक : शाबाश! यहाँ ‘स्यात्' शब्द न होने के कारण ही गुरु उलझन में पड़ गये और इसी वजह से वे सिरदर्द का बहाना बनाकर चले गये हैं।
निकलंक : तो भाई आओ! हम यहाँ ‘स्यात्' शब्द लिखकर उनका सिरदर्द मिटा देते हैं।
अकलंक : हाँ चलो, ऐसा ही करते हैं, परन्तु यह बात बहुत ही गुप्त रखना, यदि हम पकड़े गये तो जान का खतरा है।
(पुस्तक में स्यात्' शब्द लिखकर चुपचाप चले जाते हैं। थोड़ी ही देर बाद पाठशाला की घंटी बजती है। विद्यार्थी आते हैं। पीछे से गुरु आते हैं। विद्यार्थी उन्हें सम्मान देते हुए खड़े हो जाते हैं।)