________________
जैनधर्म की कहानियाँ भाग-६/२६
का, संस्कृत भाषा का गहरा अध्ययन कर लिया। अब उनकी शिक्षा पूर्णता की ओर ही थी कि एकदिन ....1)
गुरु : सुनो विद्यार्थियो ! आज मैं तुमको जैनधर्म का प्रकरण समझाता हूँ और उसमें क्या भूल है - यह बतलाता हूँ। अपने धर्म के अनुसार इस जगत में सब सर्वथा क्षणभंगुर अनित्य ही है, लेकिन जैन लोग वस्तु को नित्य मानते हैं और फिर उसे अनित्य भी मानते हैं। देखो, उनके इस शास्त्र में लिखा है कि 'जीवः अस्ति, जीवः नास्ति' अर्थात् जीव है, जीव नहीं है।
एक विद्यार्थी : ऐसा कहने का क्या कारण है ?
गुरु : कारण दूसरा क्या होगा ? बस एक अज्ञान ।
दूसरा विद्यार्थी : परन्तु गुरुजी ! 'जीव है' ऐसा कहते हैं और फिर साथ में ही 'जीव नहीं है', ऐसा भी कहते हैं, ऐसी सीधी-सादी बड़ी भूल जैन कैसे कर सकते हैं? जैन तो बहुत बुद्धिवाले माने जाते हैं। तब 'जीवः अस्ति जीवः नास्ति' ऐसा कहने में उनकी कोई अपेक्षा तो होगी, केवल हमें भ्रम में डालने के लिए तो ऐसा नहीं कहा है।
>
तीसरा विद्यार्थी : महाराज! 'जीवः अस्ति, जीवः नास्ति' का अर्थ क्या है ?
गुरु : ( क्रोधित होकर) 'जीवः अस्ति' अर्थात् जीव है और 'जीवः नास्ति' अर्थात् जीव नहीं है।
चौथा विद्यार्थी : 'जीव है और जीव नहीं है।' इसका मतलब
क्या ?
गुरु : (झुंझलाकर) माथा पचा दिया। इस समय मेरा सिर दुख रहा है, कल समझाऊँगा
(गुरु सिर में हाथ देकर कक्षा में से चले जाते हैं। विद्यार्थी भी एक-एक करके चले जाते हैं। अन्त में अकलंक और निकलंक बच जाते हैं।)