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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४९
हो उठे हैं - यही कारण है कि झरनों के कल-कल नाद से वे भी मुस्कुरा रहे हैं, वन के वृक्ष नम्रीभूत होकर अपने फल मानो तुम्हें ही समर्पित कर रहे हैं। मोर, तोता एवं मैना मानो सुन्दर स्वर में तुम्हारा ही अभिनन्दन कर रहे हैं।
अतः हे कल्याणरूपिणी ! हे पुण्यवंती ! तुम चिन्ता का परित्याग कर प्रसन्न रहो, यहाँ अपने को किसी भी प्रकार से भयभीत नहीं होना चाहिये, देव भी तुम्हारी सेवार्थ तत्पर हैं । तुम्हारा शरीर निष्पाप है, तुम्हारा शील निर्दोष है - यही कारण है कि ये पक्षी भी तुम्हारी प्रशंसा कर रहे हैं। तुम्हारे यहाँ निवास से सारा ही वन प्रफुल्लित हो उठा है, देखो ! देखो !! स्वयं सूर्य भी तुम्हारे दर्शनों के लिये उदित हो रहा है । "
वसंतमाला की प्रसन्नता वर्धक वार्ता का श्रवण कर अंजना कहने लगी – “हे सखी ! जब तू मेरे साथ है तो सारा कुटुम्ब ही मेरे साथ है, तेरे प्रसाद से तो ये वन भी मेरे लिये नगर समान है। सच्चा बन्धु तो वही है, जो संकटकालीन परिस्थिति में सहायता करे। दुखदातार बन्धु नहीं हो सकता । हे सखी ! इस संकटकालीन समय में तेरे सामीप्य से मेरा सर्व दुख विस्मृत हो गया है। "
- इस प्रकार प्रेमपूर्वक वार्तालाप करती हुई वे दोनों सखियाँ उस गुफा में निवास कर रही थीं। दोनों मुनिसुव्रतनाथ प्रभु की प्रतिदिन पूजाअर्चना करतीं और वसंतमाला विद्या बल से खान-पान की सब सामग्री एकत्रित कर विधिपूर्वक भोजन बनाती थी। गुफावासी गंधर्वदेव उनकी हर प्रकार रक्षा करता था और बारम्बार विविध रागों से जिनदेव की स्तुतियाँ सुनाता था। इतना ही नहीं, वनवासी हिरणादि पशु भी उन दोनों सखियों से हिल-मिल गये थे ।
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इस प्रकार दोनों का समय व्यतीत हो रहा था ।