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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/४८ “मैं सर्वज्ञ परमात्मा श्री अरिहन्तदेव को अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। जो देवों के द्वारा भी पूज्य हैं – ऐसे देवाधिदेव श्री मुनिसुव्रतनाथ के चरणयुगल में अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। हे भगवान ! आप त्रिभुवन में श्रेष्ठ मुक्तिमार्ग के नेता हैं। आपके चरणों के नख की प्रभा से इन्द्र के मुकुट के रत्न प्रकाशित होते हैं। हे सर्वज्ञदेव ! आप ही जीवों को परम शरणभूत हैं।"
इस प्रकार जिनेन्द्रप्रभु की अद्भुत भक्ति सुनकर दोनों सखियों का हृदय अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अपूर्व राग सुनने के कारण उन्हें विस्मय भी हुआ। गीत की प्रशंसा करती हुई वे कहने लगीं - “धन्य है यह गीत, लगता है जिनेन्द्रदेव के किसी अनन्य भक्त ने यह गीत गाया है, जिसे सुनकर हमारा हृदय रोमांचित हो गया है।"
वसंतमाला अंजना से कहने लंगी – “हे सखी ! अवश्य ही यहाँ किसी दयावान देव का निवास है, जिसने पहले तो अष्टापद का रूप धारण कर सिंह को भगाकर आपकी रक्षा की और फिर आपके आनन्द के लिये यह मनोहर गीत गाया है।
हे देवी ! हे शीलवती !! तुम्हारी तो सभी रक्षा करते हैं। शीलवंत धर्मात्माओं के तो भयंकर वन में देव भी मित्र बन जाते हैं। - इस उपसर्ग के निवारण से यह स्पष्ट विदित होता है। शीघ्र ही तुम्हें अपने पति का समागम प्राप्त होगा और महापराक्रमी पुत्ररत्न प्राप्त होगा। मुनिराज के वचन कदापि अन्यथा नहीं हो सकते"
___ - इस प्रकार चर्चा-वार्ता से दोनों ने रात्रि व्यतीत की। प्रात:काल होने पर दोनों सखियों ने उठकर सर्वप्रथम गुफा में विराजमान श्री मुनिसुव्रत नाथ के जिनबिम्ब की अतिशय भक्तिपूर्वक पूजा-वन्दना की, तत्पश्चात् अंजना के चित्त को प्रसन्न करती हुई वसन्तमाला कहने लगी -
"हे देवी! देखो तो तुम्हारे यहाँ आने से पर्वत एवं वन भी हर्षित