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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - ४/२४
तब कुमार कहने लगा- “हे मित्र ! सुनो मैंने कभी भी अंजना के साथ प्रीति नहीं की, इस कारण आज मेरा मन अत्यन्त व्याकुल है। हमारा विवाह हुये बाईस वर्ष व्यतीत होने पर भी उसे आज तक मेरा वियोग रहा है, वह नित्य ही शोकाकुल हो अश्रुपात करती है। यहाँ आने के समय जब वह दरवाजे पर खड़ी थी, तब वियोगावस्था में दुखित उसका चेहरा मैंने देखा था, वह दृश्य अभी भी मेरे मानस पटल पर बाण की भांति चुभ रहा है । अत: हे मित्र ! वह प्रयत्न करो, जिससे हमारा सम्मिलन संभव हो सके, अन्यथा हम दोनों का मरण सुनिश्चित है । "
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कुछ देर विचार कर प्रहस्त बोला - " हे मित्र ! तुम माता-पिता की आज्ञा प्राप्त कर युद्ध में शत्रु को परास्त करने निकले हो, अतः वहाँ वापस जाना तो अनुचित है ही और अंजना को यहाँ बुलाना भी उचित नहीं है, क्योंकि तुम्हारा व्यवहार आज तक उसके प्रति निराशाजनक रहा है - ऐसी स्थिति में तो यही संभव है कि तुम गुप्तरूप से वहाँ जाओ और उसका अवलोकन करके सुख-संभाषण कर आनन्दपूर्वक प्रात:काल होने के पूर्व ही वापस यहाँ आ जाओ ऐसा करने से तुम्हारा चित्त शान्त होगा, परिणामस्वरूप तुम शत्रु पर विजय प्राप्त कर सकोगे ।
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इस प्रकार निश्चय करके सेना की रक्षा का भार सेनापति के सुपुर्द कर दोनों मित्र मेरु- वंदना के बहाने आकाशमार्ग से अंजना के महल की तरफ प्रस्थान कर गये। उस समय कुछ रात्रि व्यतीत हो गयी थी, अंजना के महल में दीपक का प्रकाश टिमटिमा रहा था, पवनकुमार के शुभागमन का शुभ समाचार देने हेतु कुमार को बाहर ही छोड़कर प्रहस्त भीतर गया और उसने दरवाजा खटखटाया।
आहट पाकर अंजना ने पूछा - 'कौन है ?' और नजदीक ही
• शयन कर रही सखी वसन्तमाला को जगाया; तब सर्व बातों में निपुण वसन्तमाला अंजना के भय को निवारण करने को उद्यत हुई तथा दरवाजा खोला ।