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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२५
जब प्रहस्त ने नमस्कार करके पवनकुमार के शुभागमन का समाचार अंजना को सुनाया तो वह सहसा इस बात पर विश्वास न कर सकी और यह समाचार उसे स्वप्नवत् ज्ञात हुआ।
__गद्गद् वाणी द्वारा वह प्रहस्त से कहने लगी – “हे प्रहस्त ! मैं पुण्यहीन पतिकृपाविहीन हूँ, तुम क्यों मेरा अपमान कर रहे हो, मैं तो पहले ही पापोदय की सताई हुई हूँ, पर अरे रे ! पति द्वारा ही जिसका सम्मान न हो, उसकी अवज्ञा भला कौन नहीं करेगा ? हाय ! मुझ अभागिन को वह सुखद दिन कब प्राप्त होगा ? कब मुझे अपने प्राणेश्वर के दर्शन होंगे ?"
प्रहस्त ने करबद्ध हो निवेदन किया – “हे कल्याण रूपिणी ! हे पतिव्रता !! मेरा अपराध क्षमा करें। अब आपके अशुभ कर्मोदय का समापन हो गया है। आपके निश्चल प्रेम से प्रेरित हो आपके प्राणनाथ यहाँ पधारे हैं। वे आपसे अत्यन्त लज्जित हैं तथा प्रसन्न भी हैं, उनकी प्रसन्नता से आनंद न हो - यह असंभव है।"
___ यह बात सुनकर अंजना ने अपनी नजरें झुका लीं, तब वसन्तमाला ने प्रहस्त से कहा- "हे भद्र ! मेघ तो जब बरसे तभी श्रेष्ठ हैं। कुमार इनके महल में पधारे हैं - यह इनका महाभाग्य है, हमारा भी पुण्यरूप वृक्ष विकसित होकर फला है।"
अन्दर इस प्रकार चर्चा चल रही थी कि तभी कुमार भी वहीं आ पहुँचे। उनके नेत्रों से आनन्दानु छलक रहें थे, मानो करुणारूपी सखी ही उन्हें यहाँ ले आयी थी।
पति को देखते ही अंजना ने हाथ जोड़कर विनयपूर्वक उनके चरणस्पर्श किये, तब कुमार ने उसे अपने हाथों से उठाकर इस प्रकार सम्बोधित किया- "हे देवी! अब सर्व क्लेश एवं दुखों का परित्याग कर दो।" - ऐसा कहकर उन्होंने उसे अपने निकट बैठाया, तब प्रहस्त और वसन्तमाला बाहर चले गये।