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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-४/२३
तो पिताश्री द्वारा विदा प्राप्त कर निकला हूँ, अब वापस भी किस तरह जा सकता हूँ! अरे ! बड़े धर्म संकट में फँस गया हूँ। यदि मैं अंजना से मिले बिना संग्राम में जाता हूँ तो निश्चित ही वह मेरे वियोग में प्राण त्याग देगी। उसके अभाव में मेरा अभाव भी सुनिश्चित है। जगत में जीवन के समान कुछ नहीं है, अत: सर्व संदेह का निवारण करने वाले अपने मित्र प्रहस्त से इसका उपाय पूछू। वह हर प्रकार से प्रवीण एवं विचारशील है। प्रत्येक कार्य को सोच-विचार कर करने वाला प्राणी निस्संदेह सुख को प्राप्त करता है।"
- इस प्रकार पवनकुमार अन्तर्द्वन्द्वों में गोते खा रहे थे। वहीं कुमार को विचारमग्न देखकर जो कुमार के सुख से सुखी एवं दुख से दुखी हो जाता है - ऐसा मित्र प्रहस्त पूछने लगा – “हे मित्र ! तुम किस चिन्ता में मग्न हो, तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिये कि तुम महाराज रावण की सहायतार्थ वरुण जैसे योद्धा के सन्मुख युद्ध हेतु जा रहे हो । याद रखो, इस समय प्रसन्नता में ही कार्यसिद्धि निहित है। फिर भी आज तुम्हारे मुखकमल की मलिनता का क्या कारण है ? संकोच का परित्याग कर मुझे वस्तुस्थिति से अवगत कराओ। तुम्हें चिन्तामग्न देखकर मुझे व्याकुलता हो रही है।"
पवनकुमार ने कहा – “हे मित्र ! बात ही कुछ ऐसी है, जो किसी से कही नहीं जा सकती। यद्यपि मेरे हृदय की समस्त वार्ता कहने का एकमात्र स्थान तुम्ही हो, तुममें और मुझमें कुछ भी भेद नहीं है, तथापि यह बात कहते हुये मैं संकोच का अनुभव कर रहा हूँ।"
प्रहस्त कहने लगा- “हे कुमार ! जो तुम्हारे चित्त में हो वह कहो, जो कुछ तुम मुझसे कहोगे वह बात सदैव गोपनीय रहेगी - यह मेरा वचन है। जैसे गर्म लोहे पर गिरा हुआ जल-बिन्दु शीघ्र ही विलय को प्राप्त हो जाने से दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी प्रकार मुझसे कही हुई तुम्हारी बात प्रगट नहीं होगी।"