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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/६२
कितने ही भव धारण करके अनुक्रम से वैशाली के चेटक राजा की पुत्री चेलना हुई, जो अभी तुम्हारी पटरानी है। "
अपने पूर्वभव की बात सुनकर राजा श्रेणिक को यथार्थ बोध हुआ, तीर्थंकर प्रभु के समीप विशेष आत्मशुद्धि पूर्वक क्षायिक सम्यक्त्व प्रकट किया। इतना ही नहीं, धर्म की उत्तम भावना के द्वारा उन्हें तीर्थंकर नाम कर्म बँधना भी शुरू हुआ और भगवान महावीर के ८४००० वर्ष बाद इस भरत क्षेत्र में महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होंगे।
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अरे भव्यजीवो ! जिस वीतरागता और अहिंसा का उपदेश जैनधर्म देता है, उसका थोड़ा-सा पालन करने से ही जब ऐसा महान फल प्राप्त होता है, तो सम्पूर्ण वीतराग भावरूप अहिंसा का फल कितना महान होगा, उसे समझना चाहिये । अतः हे बंधुओ, शूरवीर होकर वीर भगवान
अहिंसा धर्म का पालन करना, उसे पालन करने में कायर मत होना । मद्य, माँस और अण्डे के खाने में भी पंच - इन्द्रिय जीव का घात है। ऐसे खाने-पीनेवाले होटल वगैरह में भी जिज्ञासु सज्जनों को कभी नहीं जाना चाहिए । अतः जैनधर्म की वीतरागता के उत्तम संस्कार आत्मा में विकसित करना चाहिये, जिससे राजा श्रेणिक के समान हमारा भी महान कल्याण होवे ।
अहो ! यह है विचित्र संसार के बीच भी अलिप्त ज्ञानचेतना राजा श्रेणिक की।
श्री गौतम गणधर के श्रीमुख से अपने भूतकाल के भवों का वर्णन सुनकर, श्रेणिक राजा वैराग्यपूर्वक अपने भविष्य के भवों के बारे में भी उनसे पूछते हैं । तब गौतमस्वामी कहते हैं -
"हे श्रेणिक ! पहले अज्ञानदशा में मिथ्यात्वादि पापों के सेवन से और जैनमुनि के ऊपर उपसर्ग करने से जो पाप तुमने बाँधे थे, उससे तुम पहले नरक में जाओगे; लेकिन वहाँ भी क्षायिक सम्यक्त्व होने से तुम