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जैनधर्म की कहानियाँ भाग-२/६१ तब भील ने मित्र को समझाते हुए कहा – “मैंने अपने जीवन में कोई सत्कार्य नहीं किया, जैसे-तैसे एक छोटा व्रत लिया है और मैं ऐसा मूर्ख नहीं हूँ कि उसे भी छोड़ दूं। जिसे धर्म से किंचित् भी स्नेह होगा, वह मरण अवस्था में भी व्रत को नहीं छोड़ेगा।"
इसप्रकार वह अपनी प्रतिज्ञा में दृढ रहा। उसकी दृढ़ता देखकर उसका मित्र प्रसन्न हुआ और रास्ते में यक्षदेवी के साथ हुई सब बात उसने वादिरसार को बताई कि तुम्हारी इस प्रतिज्ञा के कारण तुम देव होगे।
उससमय मात्र कौए का माँस छोड़ने का भी ऐसा महान फल जानकर, हे श्रेणिक ! उस भील राजा को उन जैन मुनिराज के ऊपर श्रद्धा हो गयी और अहिंसा धर्म का उत्साह बढ़ा, जिससे जैनधर्म के स्वीकार पूर्वक उसने माँसादि का सर्वथा त्याग करके अहिंसादि पाँच अणुव्रत धारण किये और पंचपरमेष्ठी की भक्तिपूर्वक शांति से प्राण त्याग कर, व्रत के प्रभाव से उसका आत्मा सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ।"
गौतमस्वामी आगे कहते हैं – “हे श्रेणिक ! वह भील तुम ही हो- फिर उस देवपर्याय से च्युत होकर तुम इस राजगृही में श्रेणिक राजा हुए हो और एक भव के बाद तुम तीर्थंकर होगे।"
भील के व्रतों का ऐसा उत्तम फल देखकर वहाँ उसके मित्र ने भी अणुव्रत धारण किये, वह मित्र भी वहाँ से मरकर ब्राह्मण का अवतार लेकर अर्हत्दास सेठ होकर जैन संस्कार प्राप्त करके स्वर्ग गया, और वहाँ से मरकर वह तुम्हारा पुत्र अभयकुमार हुआ है, वह तो इसी भव में जैनमुनि होकर मोक्ष प्राप्त करेगा।
श्रेणिक ने पूछा – “हे स्वामी ! फिर उस यक्षदेवी का क्या
हुआ ?"
. गौतमस्वामी ने कहा - "हे राजन् ! वह यक्षदेवी उसके बाद