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जैनधर्म की कहानियाँ भाग - २/६३
कभी भी अपने आत्मा को विस्मृत नहीं करोगे और सोलह कारण भावना हुए दूसरे भव में तुम इस भरत क्षेत्र में महापद्म नामक त्रिलोकपूज्य प्रथम तीर्थंकर होकर मोक्ष प्राप्त करोगे ।"
भाते
“अहो, एक ही जीव, एक ही भव में एक बार में नरक के कर्म बाँधता है, और फिर उस ही भव में तीर्थंकर नामकर्म प्रकृति का कर्म बाँधता है, देखो तो जरा जीव की परिणति की विचित्रता । "
इस प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि श्रेणिक ने अपने बारे में एक साथ दो बातें सुनी - १. आगामी भव में नरक जाना और २. उसके बाद के भव में तीर्थंकर बनना । 'नरक में जाना और तीर्थंकर होना' - दोनों बातें एक साथ सुनकर उसे कैसा लग रहा होगा ? खुशी हुई होगी ? या खेद हुआ होगा ? कहाँ हजारों वर्ष तक नरक के घोरातिघोर अत्यंत दुःख की वेदना ! और कहाँ त्रिलोकपूज्य तीर्थंकर पदवी !
अहो ! कैसा विचित्र संयोग है। एक ओर नरक गति का खेद और दूसरी और तीर्थंकर पदवी का हर्ष । लेकिन हे भव्यजीवो ! तुम श्रेणिक में ऐसा हर्ष या खेद ही नहीं देखना । इन दोनों के अलावा एक तीसरी अत्यंत सुंदर वस्तु उस ही समय श्रेणिक राजा में वर्त रही है, उसे तुम देखना, ही तुम धर्मात्मा श्रेणिक को समझोगे, वरना तुम श्रेणिक के प्रति अन्याय करोगे ।
तब