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- कवि प्रेमचन्द जैन 'वत्सल'
सिंह का वैराग्य एक सिंह की सुनो कहानी जंगल में वह मस्ती से । मार-मार कर खाता निश-दिन जीव वहाँ की बस्ती से | क्रूर जानवर क्रूर हृदय से क्रूर कर्म में निपुण महान । जिसके नख ही करते रहते हर क्षण तलवारों का काम ॥ एक दो नहीं पाँच दस नहीं होते चार पैर के बीस । पकड़े और खाय जीवित ही अलग करे नहिं धड़ से सीस ॥
एक समय वह हिरण पकड़ कर खाय रहा था हो निर्भय । अकस्मात् इक घटना घटती भव्य सुनो उसका निर्णय ॥ चारण ऋद्धीधारी मुनिवर जो दोय गगन से उतर रहे । वे इसको देख नजर इसकी में अपनी नजर मिलाय रहे ।
अब तो वह सिंह सोचता उस क्षण मानों मुझ से बोल रहे। होता भी ऐसा है सचमुच मुनिवर उसको सम्बोध रहे ॥ अय सिंहराज ! क्या सोच रहे हो ये नहिं काम तुम्हारा है। जिनशासन नायक पद पाने का आया समय तुम्हारा है ||
निज शक्ति का कुछ पता नहीं यातें कुकृत्य अपनाय लिया । अब भी तू चेत अरे चेतन ! तू सिंह नहीं सुन खोल हिया ।। तब उसने अगले पैर जोड़कर करी वन्दना उसी समय । अन्दर से फिर वैराग्य जगा मानों कुकृत्य से खाया भय ॥
आँखों में आँसू भरकर के स्वीकृत अपना अपराध किया । अरु पड़ा शान्त चरणों में मानों वह अब माफी माँग रहा। कोई उपाय नहिं जीने का ऐसी पर्याय लई मैंने । अब खाकर माँस रहूँ जीवित फिर क्या कुकृत्य छोड़ा मैंने ।
तातैं भोजन - पानी तजकर लीनी समाधि निज आतम - हित । तब मरा जान वन जीव सभी निर्भय हो देख रहे दे चित ॥
वह भी समाधि से नहीं डिगा निज-आराधन में अडिग हुआ । तब देह-त्याग सौधर्म स्वर्ग में हरिध्वज नामा देव हुआ |
दशवें भव में वे महावीर तीर्थंकर भी बन जाते हैं। पशु से मातम बने, 'प्रेम' विधि जैनधर्म में पाते हैं।