________________ 304 योगबिंदु वैशेषिक और नैयायिकों की मान्यताएँ अर्थात् आत्मा, कर्म, लोक-परलोक सम्बंधी तथा योग सम्बंधी भिन्न-भिन्न वर्गों की विचारधाराएँ तटस्थ भाव से अभिव्यक्त की है, खोल कर स्पष्ट रखी है / ग्रंथकार को किसी भी मत या पक्ष के प्रति कदाग्रह या हठ नहीं है। ग्रंथकार ने कितना सुन्दर कहा है कि जो आत्मा के हित के लिये सदा प्रयत्नशील है, और जो सभी शास्त्रों के तत्त्वों को सम्यक् प्रकार से जानते हैं, उनको मध्यस्थवृत्ति का आश्रय लेकर स्वयं ही तत्त्व की गवेषणा करनी चाहिये / स्वयं ही परीक्षा करनी चाहिये कि इन सभी मान्यताओं में से कौन सी मान्यता आत्मा को मोक्ष के समीप ले जाने वाली है / ग्रंथकार ने हमेशा बुद्धि स्वातन्त्र्य पर जोर दिया है / इस ग्रंथ के आदि, मध्य और अब अन्त में भी वे यही कहना चाहते हैं कि कोई भी वस्तु, तत्त्व, सिद्धान्त किसी पर लादाथोपा नहीं जाना चाहिये / प्रत्येक व्यक्ति के बुद्धि के द्वार खुले हैं / सभी को बुद्धि की कसौटी से कसकर ही कोई भी तत्त्व ग्रहण करना चाहिये / 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' नहीं चलता। इस ग्रंथ में भी ग्रंथकार ने सभी दर्शनों की अलग-अलग मान्याताएँ उपस्थित की है, उसमें से बुद्धिशील आत्मार्थी को स्वयं ही तत्त्व की अन्वेषणा करनी चाहिये / ऐसी सलाह ग्रंथकार ने सब को दी है। उनकी यह दिग्दर्शन-कथन कितनी उदारता और विशालता का दर्शन है // 524 / / आत्मीयः परकीयो वा, कः सिद्धान्तो विपश्चिताम् / दृष्टेष्टाबाधितो यस्तु, युक्तस्तस्य परिग्रहः // 525 // अर्थ : विद्वानों के लिये कौन सा सिद्धान्त अपना या कौन सा पराया ? जो दृष्टेष्टाबाधित हो; उसको ग्रहण करना चाहिये // 525 // विवेचन : जिन्होंने सर्वशास्त्रों का अवगाहन किया है, ज्ञान को जिन्होंने सच्चे अर्थ में समझा है, ऐसे विद्वान पण्डितों को अपना और पराये का भेद नहीं होता / वे विशाल और उदार चित्तवाले होते हैं / संकुचित मनोवृत्ति वाले वे ही लोग होते हैं जो अज्ञानी होते हैं / वे लोग ही यह सिद्धान्त अपना है इसलिये ग्राह्य है, और अमुक सिद्धान्त पराया - शैव, बौद्ध और मीमांसकों का है इसलिये अग्राह्य है - ऐसी तुच्छ संकुचित मनोवृत्ति रखते हैं। परन्तु जो ज्ञानी है उसे अपना और पराये का कोई भेद नहीं होता / वह तो उसी सिद्धान्त को अपना कहता है, उसी को मानता है, जो दृष्ट-प्रत्यक्ष प्रमाणादि से सत्य के समीप हो और जो इष्टाबाधित अर्थात् इष्ट-मोक्ष के लिये जो बाधारूप न हो उसे ही ग्रहण करते हैं / क्योंकि 'युक्तिमत् वचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रह', और 'उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्', विद्वान सतत् सत्य के ग्राही है / जो तत्त्व दृष्ट और इष्टाबाधित हो उसे ही ग्रहण करना चाहिये, ऐसा कह कर ग्रंथ कर्ता ने सारा बोझ विद्वानों के कंधो पर डाल दिया है और स्वयं निर्लेप और अनासक्त योगी बनकर, केवल दर्शक मात्र रह गये है। कितनी निस्पृहता ? ||525 / /