________________ योगबिंदु 303 अथवा बौद्धोक्त मतानुसार तथाभाव आत्मा को नित्य और परिणामी माने बिना भवादिक बंधमोक्ष व्यवस्था घटित नहीं होती / इस पर अद्वैतवादी कहते हैं कि इससे केवलाद्वैतवादियों को क्या है ? तो उत्तर देते हैं कि हेतु-अपरिणामित्वरूप हेतु दोनों क्षणिकवादि बौद्धों में और केवलाद्वैतवादियों में समान है, इसलिये दोनों मतों में एकान्तमत प्रमाण रूप मानने से बंधमोक्ष व्यवस्था घटित नहीं होती। भाव यह है कि आत्मा और कर्म को मानने पर भी आत्मा का जब तक परिणामी स्वभाव स्वीकार नहीं करते तब तक बंध और मोक्ष की व्यवस्था उचित नहीं बैठती / परिणामी मानने पर ही ठीक व्यवस्था होती है / / 522 // मुक्तस्येव तथाभावकल्पना यन्निरर्थका / स्यादस्यां प्रभवन्त्यां तु, बीजादेवाङ्कुरोदयः / / 523 // अर्थ : मुक्त के लिये तथाभाव की कल्पना निरर्थक है (क्योंकि) इसके (तथाभाव के) होने पर ही बीज से अंकुर का उदय होता है // 523 // विवेचन : जो आत्मा सर्व कर्म विकारों से मुक्त हो चुकी है उसके लिये तथाभाव-आत्मा का नित्य और परिणामी स्वरूप कल्पना व्यर्थ है। क्योंकि कर्मसम्बंध होने पर ही आत्मा अपने नित्य और परिणामी स्वरूप से संसार में रहती है। संसारी जीवों का संसार में रहने का मुख्य हेतु तथाभाव को माना है / परन्तु संसार में जैसे बीज के होने पर ही अंकुर उगते हैं, पत्थर में से अंकुर पैदा नहीं हो सकते, उसी प्रकार कर्मरूप बीज हो तो ही अकुंररूप संसार हो सकता है, परन्तु जिनके कर्मबीज समूल नष्ट हो चुके है वैसी मुक्तात्मा को उनको अंकुररूप जन्म-मरणरूप संसार भ्रमण की कल्पना निरर्थक है / इसलिये कर्म का संयोग होने पर ही आत्मा की तथाभाव कल्पना सार्थक हो सकती है। लेकिन मुक्त होने पर कर्म ही नहीं तो तथाभाव की कल्पना क्या फल ला सकती है ? तथाभाव कल्पना=भव-परम्परा के कारण की कल्पना // 523 // एवमाद्यत्र शास्त्रज्ञैस्तत्त्वतः स्वहितोद्यतैः / माध्यस्थ्यमवलम्ब्योच्चैरालोच्यं स्वयमेव तु // 24 // अर्थ : आत्महित में प्रयत्नशील शास्त्रवेत्ताओं को यहाँ (योगसम्बंध में) तटस्थवृत्ति का आश्रय लेकर वस्तुत: स्वयं ही तत्त्व की गवेषणा-पर्यालोचना कर लेनी चाहिये // 524 // विवेचन : ग्रंथकार ने योगबिन्दु ग्रंथ में सभी दर्शनों-वेदान्त, सांख्य, बौद्ध, जैन, मीमांसक,