________________ 302 योगबिंदु तो उस काल्पनिक वस्तु से वास्तविक बंध असंभव है - कभी नहीं हो सकता / परन्तु आप अगर बंध को भी कर्म की भाँति काल्पनिक ही समझते है तो फिर काल्पनिक बंधन से वास्तविक मुक्ति कैसे हो सकती है ? कर्म को काल्पनिक मानने से बंध-मोक्ष की सारी व्यवस्था तप, जप, ध्यान, साधना, अनुष्ठान आदि सब व्यर्थ सिद्ध होते हैं / जब कर्म और उसका बंध ही केवल कल्पना का विषय है तो फिर आकाशकुसुम, शशकश्रृंग, वंध्यापुत्र की कल्पना के समान मुक्ति भी कल्पना का विषय हुई / आप का एकान्त सिद्धान्त किसी भी तत्त्व को यथार्थ प्रकट नहीं कर सकता। इसलिये इस सम्बंध में विचार करने योग्य है, तुम्हारे मतानुसार बंध-मोक्ष घटित नहीं होता // 521 // नान्यतोऽपि तथाभावाटते तेषां भवादिकम् / ततः किं केवलानां तु ननु हेतुसमत्वतः // 522 // अर्थ : अन्य-कर्म होने पर भी तथाभाव (आत्मा को नित्य- और परिणामी) माने बिना उनका (आत्माओं का) भवादिक (बंध-मोक्ष व्यवस्था) घटित नहीं होता / (यदि कहो कि) उससे केवलाद्वैतवादियों को क्या ? तो हेतु समान है // 522 // विवेचन : तथाभाव-आत्मा को नित्य और परिणामी मानता है। अद्वैत पण्डितों को विचार करना चाहिये कि यदि संसार में रहने वाले जीव अपरिणामी हों, तो उनके भव परम्परारूप पर्याय कैसे संभव हो सकते हैं ? यदि तुम ऐसा कहो कि आत्मा अपरिणामी होने पर भी संसारी आत्मा को प्रारब्धयोग से एक भव से दूसरे भव में गमन होता है / इस प्रकार आत्मा और कर्म का सम्बंध सिद्ध करने पर भी हम अद्वैतवादियों को पूछते हैं कि एकभव से दूसरे भव में गमन करते हुये जीव के परिणामी स्वभाव को तुम कैसे रोक सकते हो? अर्थात् नहीं रोक सकते / इसलिये जीवों का परिणामी स्वभाव होने से ही नये-नये परिणामों को धारण करता हुआ जीव एक भव से दूसरे भव में परिणाम-पर्याय को धारण कर सकता है। परन्तु केवलाद्वैतवादियों को एक ब्रह्म परमात्मरूप आत्मस्वरूप का एकान्त अपरिणामी स्वभाव मानने से भवपरम्परा और मोक्ष कैसे घटित हो ? क्योंकि हेतु अपरिणामीत्व समान है / और बौद्धों को भी आत्मादि द्रव्य क्षणिक होने से परिणामीत्व का अभाव है। इसी प्रकार शुद्धाद्वैत केवलाद्वैतवादियों के मत में आत्मादि अपरिणामी मानने से भवपरम्परा की असिद्धि में अपरिणामित्वरूप हेतु समान रहे हुये हैं / कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे बौद्धलोग आत्मा को क्षणिकजीवी मानते हैं, उनको अन्य परिणाम रूप पर्याय होने में हेतु का अभाव सिद्ध है / उसी प्रकार शुद्धाद्वैत वेदान्तियों को एकान्त नित्य अविचलित कूटस्थ स्वभावी आत्मा मान्य होने से परिणामित्व का अभाव है। इसी कारण से उनके मत में भी ब्रह्म स्वरूप आत्मा को भव परम्परा में हेतु का अभाव बौद्धों की भांति प्राप्त होता है। अतः आत्मा को परिणामी स्वभाव वाली माने बिना बंध-मोक्ष व्यवस्था घटित नहीं होती। दोनों में हेतु समान होने से दोनों में समान दोष आते हैं।