________________ योगबिंदु 301 भी वस्तु विद्यमान न हो, तो जीव के स्वरूप को मलिन करने वाले और जीवों को नरक, तिर्यञ्च आदि चौरासी लाख जीव योनि में भ्रमण करवाने वाले कर्म-मायारूप तत्त्व का अभाव सिद्ध होता है। आत्मा को माया, कर्म, प्रकृति मलिन करती है, ऐसा जो कहा जाता है वे सब मिथ्या कल्पनामात्र सिद्ध होते हैं / अगर कर्म तत्त्व काल्पनिक या मिथ्या हो तो जीव को कर्मों का बंध भी संभव नहीं हो सकता / कारण बिना कार्य होता नहीं / कर्म न हो तो बंध किसका हो ? इस प्रकार बंध का अभाव प्राप्त होता है। अद्वैतवादियों की भाँति यही दोष क्षणिकवादी बौद्धों को भी लागु होता है। क्योंकि आत्मा क्षणिक जीवी होने से अन्यकर्मादिक का बंध घटित होता नहीं यह पूर्व में सिद्ध कर चुके हैं / अतः एकान्त अद्वैत् व एकान्त द्वैत, एकान्तनित्य और एकान्त अनित्य क्षणिकवाद का स्वीकार करने से वस्तु तत्त्व की यथार्थसिद्धि नहीं होती // 519 // असत्यस्मिन् कुतो मुक्तिबन्धाभावनिबन्धना / मुक्तमुक्तिर्न यन्न्याय्या, भावेऽस्यातिप्रसङ्गिता // 520 // अर्थ : बंध न हो; तो बंधाभावरूप मुक्ति कैसे हो? मुक्त की मुक्ति का न्याय उचित नहीं, क्योंकि मुक्त की मुक्ति में अतिव्याप्ति दोष है // 520 // विवेचन : अगर आत्मा को कर्म का बंध नहीं होगा तो मुक्ति कैसे होगी? क्योंकि बंधन का अभाव ही तो मुक्ति है / बंध हो तो मुक्ति हो / बंध के अभाव में वह किससे मुक्त होगा? एकान्तनित्यवादी, अद्वैतवादी, द्वैतवादी, क्षणिकवादी, एकान्त अनित्यवादियों ने कर्मदल को कल्पित माया स्वरूप माना है वे मानते है 'ब्रह्म सत्यं जगत्मिथ्या' एक ब्रह्म ही सत्य है, अन्य सब मिथ्या है। अगर ब्रह्म के अंशरूप आत्मा से अन्य सर्व कर्म आदि को कल्पित माने, वास्तविक न माने तो कर्मबंध का अभाव प्राप्त होता है / यदि बंध का ही अभाव है तो “अबंधस्य कुतो मुक्तिः"। कर्मबंधों से छुटने के लिये तप, जप, ध्यान, अनुष्ठान आदि बंध मोक्ष के सर्व क्रियाकलाप व्यर्थ होंगे। क्योंकि मुक्त की मुक्ति न्यायविरुद्ध है। उसमें प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाण, नय और निक्षेप पूर्वक विचार करते हुये एकान्त मत प्रमाण से कोई न्याय उचित घटित होता नहीं और अतिव्याप्ति, असंभव आदि दोषों की आपत्ति आती है / अत: कर्म को कल्पित मानना उचित नहीं // 520 // कल्पितादन्यतो बंन्धो, न जातु स्यादकल्पितः / कल्पितश्चेत् ततश्चिन्त्यो, ननु मुक्तिरकल्पिता / / 521 // अर्थ : कल्पित कर्म से अकल्पित-वास्तविकबंध कभी नहीं हो सकता; यदि बंध को कल्पित माने, तो उससे (कल्पित बंध से) अकल्पित-वास्तविक मुक्ति कैसे हो सकती है ? // 521 // विवेचन : कर्म, प्रकृति, माया, वासना आदि को अगर आप लोग कल्पनामात्र मानते है