________________ योगबिंदु है तो सद् विद्यमान समुद्र उर्मिरूप अंश, उसका भेदक वायु उसका सम्बंध होना हेतु कहा जाता है / ऐसे ही प्रागभावादि घटित होते हैं // 517|| सत्त्वाद्यभेद एकान्ताद् यदि तद्भेददर्शनम् / भिन्नार्थमसदेवेति, तद्वदद्वैतदर्शनम् // 518 // अर्थ : यदि सत्त्वादि एकान्तरूप से अभिन्न हो; तो भेद-दर्शन कैसे घटित होगा? क्योंकि भिन्न-भिन्न अर्थ-पर्याय अद्वैत दर्शन में मिथ्या सिद्ध होते हैं // 518 // विवेचन : सत्व-सद् विद्यमान पदार्थ आत्मा आदि में अंश-विभाग देश, काल, भाव की अपेक्षा से अनुभूत अंश-प्रदेश हैं और परिणाम-पर्याय तथा भेदरूप कारण इन तीनों को सत्त्व में अभेदभाव से माने तो आदिरूप से कहा गया सत्त्वरूप एक ही मानना पड़ेगा और वह भी एकान्तरूप से, अप्रचलित रूप से, रहता है ऐसा कहना पड़ेगा। इस प्रकार एकान्त अभेद मानने से उसमें अनेक अंशरूप भेददर्शन कैसे हो सकता है ? याने सत्त्व, उसके अंश और उसके भेदक हेतुओं का अनुभव कैसे हो सकता है? क्योंकि एक-अद्वैत-अभेदवस्तु में भिन्न-भिन्न अर्थ-पर्यायों की स्थिति कैसे संभव है ? नहीं हो सकती, वह असत्य है / लोक में भी जब एक चन्द्र का उदय दिखाई देता है तब कोई ऐसा कहे कि 'यह दो चन्द्र हैं', तो उसे तुम भ्रांत व्यक्ति ही मानोगे / उसी प्रकार एक सद् अद्वैत में अनेक परिणाम, अनेकरूप मानना भी एक भ्रांति मात्र ही है। इसलिये अद्वैतवादी वेदान्तियों के सिद्धान्तानुसार कहे हुये वचन युक्तिहीन सर्वथा असंगत है / क्योंकि जिन वस्तुओं के जो-जो स्वरूप कभी भी होने वाले नहीं, हुये नहीं और न है, जो वस्तु त्रिकालवर्ती नहीं वह स्वप्न में भी कभी नहीं आती / क्योंकि स्वप्न में भी उसी वस्तु का अनुभव दर्शन होता है जो भूतपूर्व में देखी, सुनी या अनुभवी हो / अतः सभी विद्यमान वस्तुओं का ही अनुभव होता है / क्योंकि भिन्न-भिन्न अर्थ-पर्याय अद्वैतदर्शन में असद्-अविद्यमान है। असत् अविद्यमान वस्तु की स्वीकृति से अद्वैत सिद्धान्त स्वयं ही खण्डित हो जाता है। जो एक हो, सद् हो वह अद्वैत होता है अन्यथा वह स्वयं ही नष्ट हो जाता है / अद्वैत में भी भिन्नता का दर्शन अगर तुम करते हो तो तुम्हारा अद्वैतसिद्धान्त कैसे अद्वैत रह सकता है ? // 518 // यदा नार्थान्तरं तत्त्वं, विद्यते किञ्चिदात्मनाम् / मालिन्यकारि तत्त्वेन, न तदा बन्धसम्भवः // 519 // अर्थ : जब आत्मा से भिन्न (आत्मा को) मलिन करने वाला कोई तत्त्व (कर्म नामक तत्त्व) वस्तुतः ही विद्यमान नहीं तो बंध भी संभव नहीं // 519 // विवेचन : जब आत्मा-ब्रह्म एक ही सद् तत्त्व हो और उससे अन्य कर्म नाम की कोई