________________ योगबिंदु 299 कल्पना युक्तियुक्त नहीं है। ब्रह्म को वे एक-अद्वैत कहते हैं, तो परमशुद्ध ब्रह्म, अपरब्रह्म जो माया के संसर्ग से युक्त है वे परस्पर विरुद्ध कार्य करने वाले हैं, तो एक ब्रह्मांश अन्य ब्रह्मांश के साथ शत्रुता क्यों रखता है ? समुद्र में तो समुद्र और तरंग को भिन्न करने वाला वायुरूप भेदक निमित्त विद्यमान है / वायु के कारण ही तरंगें समुद्र से अलग दिखाई देती है परन्तु अद्वैतवाद में मुक्त परम ब्रह्म में तो क्लिष्टवृत्तिरूप भेदक कारण का अभाव होने से उसका अनेक प्रकार का अंशत्व सिद्ध नहीं होता // 516 // सदाद्यमत्र हेतुः स्यात्, तात्त्विके भेद एव हि / प्रागभावादिसंसिद्धेर्न सर्वथाऽन्यथा त्रयम् // 517 // अर्थ : सद् अंश और भेदकरूप हेतु को तात्त्विक मानने पर ही प्रागभावादि भेद की सिद्धि होती है अन्यथा (प्रागभावादि की सिद्धि बिना) ये तीन सर्वथा सिद्ध नहीं हो सकते // 517|| विवेचन : शुद्ध संग्रहनय की अपेक्षा से अखिल जगत सामान्यरूप से सद्तत्त्वरूप होने से एक आद्यन्तरहित तत्त्व है / ऐसा मानने से अन्य का अभाव होता है। उसकी सिद्धि के लिये तीन हेतु माने जाते हैं; उसमें दो वस्तु मेघ है और माया - एक दूसरी से अलग होती है और तीसरी भेदक है। तात्त्विकरूप से सद् आत्मा मेघ-मायादि अंश और भेदक सत् की क्रिया, इन तीनों की विद्यमानता तात्त्विक होने पर ही भेद सिद्ध होते हैं / अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से भेद होता है। याने वस्तुओं में द्रव्यत्वरूप से नित्यत्व होने पर, पर्यायिकभाव से अनित्य होने पर भी उसका अंश से अभाव भी संभव है। चार प्रकार के अभाव में से कोई भी अभाव हो सकता है प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योऽन्याभाव और अत्यन्ताभाव, ऐसे चार प्रकार के अभाव की विद्यमानता या अविद्यमानता से ही वस्तुस्वरूप की सिद्धि होती है अगर ऐसा न माने तो एकान्त नित्य और एकान्त अनित्य मानने से दोष आता है और प्रागभावादि की सिद्धि नहीं होती / सत्त्व, अंश और भेदकरूप पारिणामिकता इन तीनों की विद्यमानता के बिना, अभावों की सिद्धि संभव नहीं है। क्योंकि दूध में दही का अभाव प्रागभाव कहा जाता है / अग्नि से दूध जल जाय वह उसका प्रध्वंसाभाव होता है। घोड़े में गाय नहीं और गाय में घोड़ा नहीं वह अन्योऽन्याभाव है। शशश्रृंगाविरूप-वंध्यापुत्रादिरूप अत्यन्ताभाव है। प्रागभावादि की अपेक्षा से सद्वस्तु, उसके अंश-अवयव, भेदक हेतुरूप पर्याय जो पूर्व में कह चुके हैं वे सब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से होते हैं / अगर उसे न स्वीकारे तो सर्व चेतन-अचेतनरूप जगत सामान्य सत्तामय एकरूप में ही मानना पड़ेगा / इसलिये समुद्र में उर्मियाँ पैदा होती हैं उसी में समा जाती हैं / उसी प्रकार परमब्रह्मस्वरूप आत्मा के अंशों के साथ समानता की जो अद्वैतकल्पना है वह योग्य नहीं है, क्योंकि समुद्र में वायुविकार की अपेक्षा से तरंग होती