________________ 298 योगबिंदु नहीं हो सकते वही एक कहा जाता है। वह आत्मा को एक और अखण्ड मानते हैं / तो उनके पुरुष में अनेक अवयवरूप अंश कहाँ से आये ? याने वह एक आत्मा अनेक शरीरों में राजारंक, पुरुष-स्त्री, चोर-साहुकार, आर्य-अनार्य, तारक-मार ऐसी एक-दूसरे से बिल्कुल विरुद्ध प्रकृतियों और प्रवृत्तियों को कैसे धारण करता है। एक अंश शिव-देव रूप में, एक अंश त्रिपुरासुर रूप में और एक अंश कंस रूप में एकसाथ ऐसे विरुद्ध अवतारों को कैसे एक आत्मा धारण कर सकता है। ऐसा कभी नहीं हो सकता / अगर ऐसा होता है तो 'एकैव ब्रह्म' तुम्हारे इस सिद्धान्त की ही हानि नाश हो जाता है / क्योंकि एकत्व ही अद्वैतवाद सिद्धान्त को प्रकट करता है // 514 // मुक्तांशत्वे विकारित्वमंशानां नोपपद्यते / तेषां चेहाविकारित्वे, सन्नीत्या मुक्ततांऽशिनः // 515 // अर्थ : मुक्त का अंश मानने पर अंशों का विकारीभाव घटित होता नहीं, उनका अविकारीभाव तो यहाँ न्याययुक्ति से सिद्ध है, क्योंकि अंश का मुक्त के साथ अभिन्नभाव सम्बंध है // 515 // विवेचन : अगर आप ऐसा मानते है कि यह जगत परमब्रह्म का ही अंश रूप है तो (संसार में अवतीर्ण होने वाले उस मुक्त परमब्रह्म के) उन अंशों का विकारी-भाव घटित नहीं होता क्योंकि ब्रह्म तो निर्विकारी, परमशुद्ध, राग-द्वेष से रहित है और संसारी प्राणी तो विकारी, अशुद्ध और रागद्वेष से युक्त है / ब्रह्म शुद्ध है, तो उनके अंश भी शुद्ध ही होने चाहिये, अविकारी होने चाहिये, विकारी नहीं, क्योंकि अविकारीभाव तो युक्तिसिद्ध है, स्पष्ट है / वस्तु जैसी होती है उसके अंश भी वैसे ही होते हैं, इसलिये ब्रह्म शुद्ध हैं तो उसके अंश भी शुद्ध ही होने चाहिये / क्योंकि मुक्तात्मा और उसके अंश एक ही हैं अभिन्न हैं, भिन्न नहीं / अतः यह अंशावतार भी तुम्हारा घटित नहीं होता / क्योंकि संसारी और मुक्तपरमब्रह्म में भेदरेखा स्पष्ट दिखाई देती है / / 515|| समुद्रोमिसमत्वं च, यदंशानां प्रकल्प्यते / न हि तद्भेदकाभावे, सम्यग्युक्तयोपपद्यते // 516 // अर्थ : अंशों को समुद्र की उर्मियों के समान समझते हो तो वह भी भेदकाभाव (भेदक का अभाव) के कारण सम्यक् युक्ति से सिद्ध नहीं होता ||516 / / विवेचन : जैसे समुद्र की तरंगें समुद्र से भिन्न नहीं, समुद्ररूप ही है। वैसे ही परमब्रह्म के अंश परमब्रह्मरूप ही है, उससे भिन्न नहीं / जैसे पट-वस्त्र के तन्तुरूप अंश वस्त्र से भिन्न नहीं पट रूप ही होते है। परन्तु अद्वैतवादी परमब्रह्म के अंशों को जिस स्वरूप में मानते हैं, वैसा स्वरूप तो आत्मा रूप परमब्रह्म में नहीं हो सकता क्योंकि अनेक शरीरों में ब्रह्म के भिन्न-भिन्न अंशों की