________________ योगबिंदु 297 में मूलशुद्धि है, न सिद्धान्तशुद्धि है और न आचार से अन्तःकरण की शुद्धि है / इसलिये स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार जो शुद्धयोग है वही वास्तविक योग है ||512 // यथेह पुरुषाद्वैते, बद्धमुक्ताविशेषतः / तदन्याऽभावनादेव, तद् द्वैतेऽपि निरूप्यताम् // 513 // अर्थ : पुरुषाद्वैतवाद में जैसे अन्य (कर्म के) के अभाव से यहाँ बंधत्व और मोक्षत्व समान है, द्वैतावाद में भी वही है // 513 / / विवेचन : वेदान्तोक्त अद्वैतवादी मानते है कि 'पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्' जगत में जो भी दिखाई देता है, भूत, वर्तमान और भविष्य काल सम्बंधी वह एकपुरुष-आत्मा ही है, उससे अन्य किसी की भी सत्ता नहीं / 'ब्रह्म सत्यं जगत्मिथ्या' ऐसे वेदवचनों से वेदान्ती अद्वैतवाद को स्वीकार करते हैं / एक अद्वैतवाद को स्वीकार करने से तदन्य आत्मा से अन्य कर्म का अभाव सिद्ध होता है, जब कर्म का ही अभाव हो तो मुक्त किससे होगा ? मोक्ष किस का होगा ? क्योंकि 'बंधाभावे कस्य मुक्तिः' और कर्म ही नहीं तो बंध किसका ? इस प्रकार अद्वैतवाद में बंधत्व और मोक्षत्व समान हुआ / जब उनके सिद्धान्तानुसार बंध और मोक्ष ही सिद्ध नहीं होता तो बंधत्व से मुक्त होने के लिये उनकी योगशास्त्र सम्बंधी चर्चा, उसमें आध्यात्मिक भेद-प्रभेद की कल्पना करना, अनुष्ठानों का विधान करना वंध्यापुत्र की जाति, कुल, रूप, रंग, लावण्य के वर्णन जैसा कल्पनिक है, वास्तविक नहीं हो सकता / इसी प्रकार द्वैतवाद में भी बंध और मोक्ष की समानतारूप दोषापत्ति उपस्थित होती है। ___ अर्थात् तदन्य-वेदान्तियों से बिल्कुल अन्य अभाववाद को स्वीकार करने वाले बौद्ध याने आत्मा का ही अभाव मानने वाले बौद्धों को भी यही दोष - बंध और मोक्ष की समानतारूप दोष - लागु पड़ता है क्योंकि आत्मा ही नहीं तो कर्म किसको लगेंगे और मुक्त कौन होगा? और इस प्रकार उनके द्वारा उपदिष्ट योगमार्ग भी कल्पना मात्र रह जायेगा क्योंकि 'मूल नास्ति कुतः शाख' ||513 // अंशावतार एकस्य, कुत एकत्वहानितः / निरंश एक इत्युक्तः, स चाद्वैतनिबन्धनम् // 514 // अर्थ : एक का अंशावतार कैसे हो सकता है ? (क्योंकि) अद्वैतवादी आत्मा को एक निरंशअखण्ड मानते हैं (ऐसे तो उनके) एकत्व की हानि है // 514|| विवेचन : अगर आत्मा एक ही है तो उसके अंश-अंश का अनेक शरीरों में अवतार संभव कैसे हो सकता है ? क्योंकि अद्वैतवाद की मान्यता है कि जिसमें निरंशता है अर्थात् जिसके अवयव