________________ 296 योगबिंदु अर्थ : इस प्रकार मूलशुद्धि से ही यहाँ योग के भेदों का वर्णन किया है / जैसे शीलसंपन्न माता-पिता से उत्पन्न सुयोग्यपुत्र की विशेषताओं का वर्णन किया जाता है // 511 // विवेचन : कारण शुद्ध हो तभी कार्य में शुद्धि आती है। इसीलिये इस योगबिन्दु ग्रंथ में सर्वप्रथम स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार आत्मा को परिणामी स्वभाव वाला सिद्ध किया है / यही मूल शुद्धि है। और फिर गोचर, व्यवहार, निश्चय आदि नय, निक्षेप, प्रमाणों के अनुसार गोचरादिक की शुद्धि सिद्ध की है। इस प्रकार आत्मा, कर्म और उनके परस्पर सम्बंध में योग्यतारूप कारण, उस कारणरूप योग्यता से मुक्त होना, याने कर्म से मुक्त होना और सहज स्वरूप में आत्मा का शुद्ध ब्रह्मत्व आदि वस्तुओं का विचार करके, इस योगबिन्दु ग्रंथ में योग के अध्यात्म, भावना, ध्यान आदि भेदों को सप्रमाण सिद्ध किया है। जैसे माता-पिता की उच्च जाति, उच्च कुल और उच्च आचार, विचार, गुण, सौन्दर्य आदि विशेषतारूप कारण से ही नामांकित पुत्र के उच्च जाति, उच्च कुल पवित्र आचार, विचार, गुण सम्पत्ति और देह सौन्दर्य समझ में आता है, वैसे ही मोक्ष में ले जाने वाले योग में कारणों की शुद्धि ही परम्परा से शुद्धकार्य को जन्म देती है / याने मोक्षरूप कार्य में उपादानरूप आत्मा की पारिणामिकता की सिद्धिरूप शुद्धि और निमित्त कारणरूप अनुष्ठान-क्रियाओं की शुद्धि, अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता वृत्तिसंक्षय रूप योग की शुद्धि मोक्ष रूप योग की सिद्धि में हेतु होती है // 511 // अन्यद् वान्ध्येयभेदोपवर्णनाकल्पमित्यतः / न मूलशुद्धयभावेन, भेदासाम्येऽपि वाचिके // 512 // अर्थ : उक्तयोग से भिन्न जो योग है, वचनमात्र से योग जैसा मालुम होता है परन्तु मूलशुद्धि के अभाव में वह वंध्यापुत्र की भेदकल्पना जैसा काल्पनिक है // 512 // विवेचन : योगबिन्दु ग्रंथ में स्याद्वाद सिद्धान्त के अनुसार आत्मादि पदार्थों को कथंचिद् नित्य और परिणामी स्वभाव वाली मानी है, यही मूलशुद्धि है / इसी के आधार पर ही योग के विविध अनुष्ठानों के भेदों का वर्णन किया है / परन्तु इस योग से वेदान्त, महर्षि पतञ्जलि, कपिल, बौद्ध द्वारा उपदिष्ट योग भिन्न होने से, उस योग के भेद-प्रभेद के स्वरूप का वर्णन वंध्या पुत्र के रूप, रंग, आकार, गुण वर्णन जैसा काल्पनिक है, सत्य नहीं / जब वंध्या को पुत्र ही नहीं तो रूपरंग का वर्णन कैसा? इस योग से अन्य योग में जब मूल ही शुद्ध नहीं तो उनके योग सम्बंधी भेद-प्रभेदों का वर्णन निरर्थक है, क्योंकि केवल शब्दसाम्य से क्या होगा? अतः उनके कथनानुसार करने से आत्मा मोक्षमार्गरूप योग में प्रवृत्ति नहीं कर सकता / कारण यह है कि उसमें आत्मादि को परिणामी नहीं माना और गोचरादिक-ज्ञान-ज्ञेय के तत्त्व का पारमार्थिक ज्ञान नहीं, श्रद्धापूर्वक यथार्थ विचारणा नहीं है / वस्तुस्वरूप को समझे बिना ही उसका वर्णन किया है। न तो अन्ययोग