________________ योगबिंदु 295 'मैं पण्डित', 'मैं शास्त्रज्ञ', 'मैं विद्वान', 'मैं सबको निरुत्तर कर सकता हूं', 'मेरे सामने कोई टिक नही सकता' तो उसका ज्ञान भव-भ्रमण का साधन है / कहा भी है : विद्या विवादाय धनं मदाय; शक्तिः परेषां परपीडनाय / खलस्य साधोविपरीतमेतद्, ज्ञानाय दानाय, च रक्षणाय // उसका शास्त्रज्ञान अभिमान, वादविवाद का हेतु होने से राग-द्वेष पैदा करता है और ऐसे ज्ञान को ज्ञानियों ने अज्ञान कहा है संसार का हेतु कहा है / क्योंकि राग-द्वेष-मोह ही संसार का बीज है अगर कोरा ज्ञानी शास्त्र को निमित्त बना कर, राग-द्वेष पैदा करता है तो शास्त्र उसके तिर जाने का साधन न होकर, डुब जाने का साधन सिद्ध होगा। जैसे अग्नि तो भोजन पकाने का साधन है, उससे उपकार भी होता है, परन्तु उसी आग को अगर द्वेषपूर्ण ढंग से उपयोग में लिया जाय तो घर को भी जला सकती है, वह नुकसान भी कर सकती है। ज्ञान तो साधन है उसका उपयोग कैसे करना वह व्यक्ति के अपने हाथ की चीज है / श्रेष्ठ अध्यात्म, भावना, ध्यान आदि के बिना कोरा शास्त्रज्ञान भी एक प्रकार का संसार ही है। जैसे अज्ञानियों का स्त्री-पुत्र आदि संसार है वैसे ही कोरे विद्वान को शास्त्र भी संसार है, दोनों समान कोटि के हैं, दोनों में कोई भी अन्तर नहीं है // 509 // कृतमत्र प्रसङ्गेन, प्रायेणोक्तं तु वाञ्छितम् / अनेनैवानुसारेण, विज्ञेयं शेषमन्यतः // 510 // अर्थ : अधिक कहने की यहाँ जरुरत नहीं है / कहने योग्य जो था वह प्रायः कह दिया है। शेष जो रह गया है वह अन्य योग-शास्त्रों से इसी नीति अनुसार ज्ञात कर लेना चाहिये // 510 // विवेचन : योगबिन्दु शास्त्र में ग्रंथकार ने योग सम्बंधी जरूरी जानकारी प्रायः अच्छी प्रकार से दे दी है। इससे अधिक जानकारी देने की आवश्यकता नही है। परन्तु फिर भी किसी साधक को इससे भी अधिक जानकारी की जरुरत हो, तो शेष जानकारी वह अन्य योगशास्त्रों से प्राप्त कर सकता है। परन्तु ध्यान रहे कि योगबिन्दु में जिस स्याद्वाद् सिद्धान्तानुसार वस्तु तत्त्व के स्वरूप का निरूपण किया है, वह जैन, जैनेतर सर्वशास्त्रों के साररूप में और द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा को ध्यान में रखकर किया है / इसलिये इस शास्त्र में बताये हुये सम्यक् ज्ञान, नय, निक्षेप, और प्रमाण के अनुसार ही अन्य योग शास्त्रों से तत्त्व ग्रहण करना चाहिये / चाहे कहीं से भी तत्त्वग्रहण करे लेकिन अनेकान्तवाद सिद्धान्तानुसार ही ग्रहण करना चाहिये क्योंकि अनेकान्तदृष्टि सत्य को संपूर्ण रूप से जानने की दृष्टि है ||510 // एवं तु मूलशुद्धयेह, योगभेदोपवर्णनम् / चारुमात्रादिसत्यपुत्रभेदव्यावर्णनोपमम् // 511 //