________________ 294 योगबिंदु ने विद्वत्ता का अगर श्रेष्ठ उत्तमोत्तम फल कहा है तो वह सद्योग का अभ्यास है क्योंकि "ज्ञानस्य फलं विरतिः" वस्तु स्वरूप का यथार्थ ज्ञान-बोध हो जाने से व्यक्ति में त्याग और वैराग्य की भावना बढ़ती है और वह संसार से विरक्त होकर अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता आदि योग के अभ्यास में अधिकाधिक प्रगतिशील होता है और अन्त में वृत्तियों के पूर्ण शुद्ध होने पर मोक्षरूप फल को पा लेता है। विद्वत्ता का दूसरा कोई फल नहीं / लेकिन विद्वान होकर, ज्ञानी होकर भी अगर त्याग और वैराग्य उसके जीवन में न आये, अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता की ओर उसकी गति न हुई, तो उसके लिये शास्त्र जो मुक्ति का साधन है, संसार का हेतु सिद्ध होगा / अतः ज्ञान का फल तो विरति है और अगर ज्ञान से विरति नहीं आती तो वह ज्ञान हो, चाहे शास्त्र हो, उसे मन सागर से पार नहीं करवा सकता उल्टा उसे संसार में डूबाने का साधन सिद्ध होगा। कहा भी है : जहा खरो चन्दन भार वाही; भारस्स भागी नह चन्दनस्य / एवं खु णाणी चरणेण हीनो, णाणस्स भागी नहु सुगइये // जैसे गधा केवल चन्दन के भार का भागी बनता है, उस की सुगन्ध-खुशबू लेने से उसको कोई प्रयोजन-लाभ-अर्थ नहीं / इसी प्रकार आचरण बिना का ज्ञानी भी केवलज्ञान का बोझ ही उठाता है, ज्ञान से पैदा होने वाले आनंद का वह आस्वाद नहीं ले सकता / ग्रंथकर्ता ने बड़ी सुन्दर बात कह दी / आचरण सबसे उत्तम है / आचरण नहीं ऐसा ज्ञान तो गोदरेज की अलमारी में पड़े धन जैसा व्यर्थ है। जो ज्ञान अपने या किसी के भी उपयोग में नहीं आता वह व्यर्थ है बोझमात्र है // 508 // पुत्रदारादिसंसारः, पुंसां सम्मूढचेतसाम् / विदुषां शास्त्रसंसारः, सद्योगरहितात्मनाम् // 509 // अर्थ : मूढ़ चित्तवाले पुरुषों के लिये पुत्र, स्त्री आदि संसार है और सद्योगरहित विद्वानों को शास्त्र भी संसार है // 509 // विवेचन : ग्रंथकर्ता ने बड़ी सुन्दर और सत्य बात कही है। सच ही जैसे मूढ़ चित्त वाले अज्ञानी बालजीवों के लिये 'यह मेरा पुत्र है', 'अमुक मेरी स्त्री है', 'यह मेरा मित्र' और "यह मेरा शत्रु है", इस प्रकार का राग-द्वेष संसार का हेतु है। उसी प्रकार कोरे ज्ञान को, चाहे वह अनेक भाषा, व्याकरण, छन्द, काव्य, कोष, साहित्य, दर्शनशास्त्रों का अभ्यास करके पण्डित बन चुका हो, परन्तु अगर वह ज्ञान उसकी आत्मा को स्पर्श नहीं करता, उसने अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता आदि सद्योग का जीवन में अभ्यास नहीं किया और "ज्ञानस्य फलं विरति:" उसके जीवन में त्यागवैराग्य नहीं है, ऐसे सद्योग रहित कोरे ज्ञानी के लिये शास्त्र भी एक प्रकार का संसार ही है। क्योंकि ज्ञान को कोई विरला साधक ही पचा सकता है / ज्ञान प्राप्त करके, अगर अभिमान आता है कि