________________ 292 योगबिंदु अस्यावाच्योऽयमानन्दः, कुमारी स्त्रीसुखं यथा / अयोगी न विजानाति, सम्यक् जात्यन्धवद् घटम् // 505 // अर्थ : इसका (मुक्तात्मा का) यह आनन्द अवाच्य होता है / कुमारी के स्त्री सुख की भांति और जाति-अन्ध के घट-पटादि की भांति अयोगी-छद्मस्थ व्यक्ति उसे सम्यक् तौर पर नहीं जान सकता // 505 // विवेचन : कर्मक्लेशों से मुक्त होने पर आत्मा को जिस आनन्द की उपलब्धि होती है; उस आनन्दानुभूति को हम शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर सकते / वाणी उसका वर्णन करने में असमर्थ है / साक्षात सरस्वती या सर्वज्ञ भगवान स्वयं आकर भी उस आनंद का वर्णन नहीं कर सकते / इसलिये इस आनन्द को अवाच्य कहा है / परन्तु बालजीवों को समझाने के लिये दो दृष्टान्त दिये हैं, जैसे कुमारी लड़की स्त्रियों के विषयसुख को जान नहीं सकती और जैसे जन्म से अन्धा व्यक्ति घट-पट आदि पदार्थों के आकार, रूप, रंग को देख नहीं सकता, वैसे ही अयोगी-छद्मस्थ व्यक्तिसाधारण व्यक्ति मुक्ति के इस सुख और आनन्द को जान नहीं सकता / श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी कहा है : जे पद श्री सर्वज्ञे दीर्छ ज्ञानमां कही शक्या नहि पण ते श्री भगवान जो; तेह स्वरूपने अन्य वाणी ते शुं कहे ? अनुभवगोचर मात्र रह्यं ते ज्ञान जो // 20 // यह आनन्द अनुभूतिगम्य है शब्द गम्य नहीं // 505 / / योगस्यैतत् फलं मुख्यमैकान्तिकमनुत्तरम् / आत्यन्तिकं परं ब्रह्म योगविद्भिदाहृतम् // 506 // अर्थ : योगवेत्ताओं ने योग के इस फल (आनन्दानुभूति) को मुख्य, एकान्तिक, अनुत्तर और आत्यन्तिक ब्रह्मस्वरूप कहा है // 506 // विवेचन : योग के तत्त्वों को सम्यक् प्रकार से जानने वालों ने योग की इस आनन्दानुभूतिरूप फल को 'मुख्य' कहा है, औपचारिक नहीं, क्योंकि औपचारिक वस्तु स्थायी नहीं होती। दूसरा विशेषण 'एकान्तिक' बताया है याने यह अनुभुति एकान्त-निश्चित है, अनिश्चित नहीं / कर्मक्लेश रहित होने पर निश्चित ही उपलब्ध होती है उसमें सन्देह को स्थान नहीं / तीसरा विशेषण 'अनुत्तर' दिया है, अनुत्तर का अर्थ है कि इस फल के पश्चात् उत्तरफल कुछ भी नहीं रह जाता / चौथा विशेषण 'आत्यन्तिक' दिया है / यह भी उस निश्चित आनन्द को और दृढ़ करने के लिये दिया है याने इस