________________ योगबिंदु 291 की उत्सुकता यानी मन, वचन, काया की अस्थिरता, चंचलता जो कि पूर्वकाल में विद्यमान थी वह सब नष्ट हो जाती है। वायु के सहयोग से जल में जो कल्लोल, लहरें, तरंगें प्रकट होती है उससे समुद्र क्षुब्ध दिखाई देता है, उसी प्रकार मन की चंचलता से आत्मा में क्षोभ दिखाई देता है। वह क्षुब्धतारूप चंचलभाव नष्ट होने से संकल्प-विकल्प दूर हो कर, निर्विकल्प समाधि में प्रवेश करता है और समभावरूप समता योग से निस्तरंग स्वयंभूरमणसमुद्र की गम्भीरता को पाता है। और आत्मा इस प्रकार स्वस्वरूप का भोक्ता और सर्वभाव का ज्ञाता होकर, शाश्वत् स्थैर्य को प्राप्त करती है / / 503 / / एकान्तक्षीणसंक्लेशो, निष्टितार्थस्ततश्च सः / निराबाधः सदानन्दो, मुक्तावात्माऽवतिष्ठते // 504 // अर्थ : जिसके सर्वकर्म क्लेश सर्वथा क्षीण हो चुके है; इष्टफल की प्राप्ति से जो कृतकृत्य हो गई है; किसी भी प्रकार की विघ्नबाधा से रहित; सर्वदा आनंद में रहने वाली ऐसी आत्मा मुक्ति में स्थिर रहती है // 504 // विवेचन : आत्मा में जब कर्मबंध की योग्यता का नाश हो जाता है, तब कर्मबंध की कोई भी शक्यता नहीं रह जाती / इस प्रकार आत्मा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय आदि घाती और वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र आदि अघाती, सर्व कर्म-क्लेशों का सर्वथा क्षय होने से क्लेश रहित हो जाती है, क्योंकि कर्म ही क्लेश के हेतु है / जब कर्ममलिनता नहीं रहती, तो आत्मा क्लेशों से मुक्त हो जाती है / कर्म क्लेशों से मुक्त होकर इष्टफलरूप मोक्ष की प्राप्ति होने से वह कृतकृत्य हो जाता है उसके करने योग्य सब कार्य संपूर्ण हो जाते हैं / कर्म सम्बंध से ही विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं और जीवात्मा के सच्चिदानन्द स्वभाव में रुकावट होती है। परन्तु जब कर्म क्षीण हो जाते हैं तो आत्मा निराबाध सदा आनन्द की स्थिति में आ जाती है और निराबाध आनन्द का भोक्ता उस आत्मा का मुक्ति में निवास होता है। जब वह आत्मा मुक्ति में चली जाती है तब फिर पुनः वह संसार के बंधनों से बंधती नहीं और संसार में आती नहीं / श्रीमद् राजचन्द्रजी ने भी अपूर्व अवसर में कहा है: चार कर्म घन घाती ते व्यवच्छेद ज्यां, भवनां बीजतणो आत्यन्तिक नाश जो; सर्व भाव ज्ञाता दृष्टा सह शुद्धता, कृतकृत्य प्रभु वीर्य अनंत प्रकाश जो // 15 // भाव यह है कि सर्व कर्म क्षीण होने पर आत्मा कृत-कृत्य होकर, निराबाध-अव्याबाध सुख, सदा आनंद में रमण करती हुई मुक्ति में निवास करती है // 504 //