________________ 290 योगबिंदु अथवा नवीनता का त्याग न हो तो वह (प्राचीन) स्वभाव सिद्ध नहीं हो सकता और घटादि का घटत्वादि भी सिद्ध नहीं हो सकता यह अनुभव सिद्ध है // 502 / / विवेचन : जगत में जो भी जड़-चेतन पदार्थ है उसमें यदि नवीनता न आती हो और सदा एक ही स्वभाव कायम रहता हो, यदि ऐसा मानो तो पदार्थों में मात्र पुरानी अवस्था ही रहनी चाहिये, परन्तु नहीं रहती। इसलिये द्रव्यत्व से सभी पदार्थ नित्य है, और पर्याय से - द्रव्यत्वरूप से अनित्य / द्रव्यार्थिकनय से पदार्थों में नित्यता रहने पर भी पर्याय की अपेक्षा से पदार्थ नये-नये पर्यायों को धारण करता है। इसलिये वह पर्यायदृष्टि से पुराने का त्याग और नवीन का ग्रहणरूप परिणामी स्वभाव को धारण करता है / जैसे घट-पट आदि पदार्थों में कथंचिद् नित्यत्वरूप घटत्व पुरानधर्मता(स्वभावता) कथंचिद् रहती है, वैसे ही नवीन-नवीन भाव को प्राप्त करके, पुरातनभाव को त्याग करने का पर्यायरूप स्वभाव कथंचिद् कायम रहता है। वैसे ही कथंचिद् घट-पट भाव कायम रहते है इसीलिये संसार में "यह नया घट है" "यह पुराना घड़ा है" ऐसा व्यवहार चलता है, जो अनुभव से सिद्ध है। __ कहने का तात्पर्य यह कि जैसे घट-पट आदि पदार्थों में द्रव्यत्वरूप से मृतिकादि नित्य होने पर भी नवीनता का त्याग और प्राचीनता-पुरातनता का ग्रहणरूप पर्याय उत्पन्न और नाश होते रहते हैं; नवीनता का त्याग और प्राचीनता का ग्रहण होता रहता है; और इसीलिये संसार में कहा जाता है कि "यह नया घड़ा और यह पुराना घड़ा", ऐसा व्यवहार अनुभव में आता है। अगर एक ही स्वभाव हो तो नया और पुराना कुछ भी नहीं रहे / इसी प्रकार आत्मा भी अपरिणामी नहीं बल्कि परिणामी है / तभी वस्तु स्वरूप की सम्यक् सिद्धि हो सकती है // 502 // योग्यतापगमेऽप्येवमस्य भावो व्यवस्थितः / सर्वोत्सुक्यविनिर्मुक्तः, स्तिमितोदधिसन्निभः // 503 // अर्थ : योग्यता निवृत्त होने पर भी इसका (आत्मा का) सहज स्वभाव सब प्रकार की चंचलता-उत्सुकता रहित निस्तरंग स्वयंभूरमण-समुद्र की भांति स्थिर रहता है // 503|| विवेचन : अध्यात्म-भावना, ध्यान आदि श्रेष्ठ योग का अभ्यास करते-करते जीवात्मा की कर्मबंध की योग्यता का सर्वथा नाश होने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता / अपितु मोक्षगमन की योग्यता से आत्मा का सहज स्वभाव - सचिदानंद स्वरूप याने ज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्य और उपयोगरूप स्वभावधर्म जो स्वसत्ता में कर्मावरणों से ढंका हुआ पड़ा था, वह कर्मों के आवरण दूर होते ही व्यवस्थित-यथार्थभाव से प्रकट होता है / और ऐसा स्वभाव प्रकट होने पर सब प्रकार