________________ योगबिंदु 289 हो जाती है कि आत्मा में परिणामी स्वभाव होने से पूर्व की कर्मबंध की योग्यतारूप स्वभाव की निवृत्ति होने पर, वैसे स्वभाववाली आत्मा की भी निवृत्ति हुई / और वैसा होने पर उत्तर पारिणामिकभाव से कर्मबंध के अभावरूप जो योग्यता स्वभाव सत्ता में पड़ा था उसको वह आत्मा प्राप्त करता है उसमें आत्मा का परिणामी स्वभाव ही मुख्यहेतुरूप से रहा हुआ है। इसीलिये पूर्व स्वरूप का त्याग और उत्तर स्वरूप की प्राप्ति सम्यक् प्रकार से अवश्य सिद्ध होती है / परन्तु यदि आत्मा को परिणामी स्वभाववाला न माने तो स्वकर्मनिवृत्ति के साथ आत्मा की निवृत्ति याने नाश मानना पड़ेगा / परन्तु यह दोष हमको लागु नही पड़ता, क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार आत्मा का परिणामी स्वभाव स्वीकृत है / अतः सत्तारूप द्रव्यत्वभाव से आत्मा का अस्तित्त्व अबाधित रहता है और पारिणामिकभावरूप पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से उत्पाद और व्यय होता है। परन्तु आत्मा को अपरिणामी मानने वालों को आत्मा का भाव और अभावरूप दोनों एकान्तदृष्टि से अनुपयुक्त सिद्ध होते हैं / अपरिणामी मानने से योग्यता निवृत्ति से आत्मा की भी निवृत्ति अभाव होगा और आत्माभाव में आत्मसत्ता ही नहीं रहती है // 500 // स्वभावविनिवृत्तिश्च, स्थितस्यापीह दृश्यते / घटादेर्नवतात्यागे, तथा तद्भावसिद्धितः // 501 // अर्थ : स्वभाव की विनिवृत्ति तो यहाँ स्थिर पदार्थों में भी देखी जाती है, जैसे नवीनता त्यागने पर भी घटादि का भावअस्तित्त्व रूप घटत्व और प्राचीनता सिद्ध होती है // 501 // विवेचन : आत्मादि पदार्थों में स्व स्वभाव रहा हुआ है परन्तु कुछ स्वभाव कारणिक होते हैं अर्थात् कारण होने पर विद्यमान होते हैं, और कारण का अभाव होने पर नाश भी हो जाते हैं। संसार में दिखाई देने वाले स्थूल घट-पट आदि पदार्थों में भी स्वभाव की निवृत्ति देखी जाती है, परन्तु फिर भी पदार्थ की निवृत्ति (नाश) उसे नहीं होती / जैसे घटादि पदार्थों में नवीनतारूप स्वभाव की निवृत्ति होने पर भी घटत्व की निवृत्ति याने नाश नहीं होता और नवीनता के त्याग से प्राचीनता सिद्ध है। इसी प्रकार कर्मबंध की योग्यता की निवृत्ति-अभाव होने पर आत्मा की निवृत्ति-नाश नहीं होता / परन्तु घट की प्राचीनता की भांति योग्यता की निवृत्ति-अभाव से सहजरूप से निरावरण - आवरण रहित आत्मा अनन्तज्ञान, दर्शन, चारित्र, वीर्यादि गुण से युक्त सिद्ध स्वभाव को सहज अनुभव करती है // 501 // नवताया न चात्यागस्तथा नातत्स्वभावता / घटादेर्न न तद्भाव, इत्यत्रानुभवः प्रमा // 502 // अर्थ : नवीनता का त्याग ही प्राचीनता को सिद्ध करता है और प्राचीनता से घटादि की सिद्धि लोक में अनुभव सिद्ध है /