________________ 288 योगबिंदु और कर्मसंयोग से संसारभ्रमण उन सिद्धों को भी करना पड़ेगा / इस शंका का समाधान करते हुये जैनाचार्य कहते हैं कि हमने पूर्व में ही परिणामवाद के प्रकरण में इस शंका का समाधान संक्षिप्त रूप से कर दिया है कि वह योग्यता निवृत्ति स्वभाव वाली ही है / अर्थात् कर्मबंध की योग्यता जीवात्मा में कथंचिद् तादात्म्यभावी होने पर भी परिणामी स्वभाववाली है और जब आत्मा का काल परिपक्व हो जाता है तो वह योग्यता जीवात्मा से निवृत्त हो जाती है / आत्मा को कथंचिद् नित्य और परिणामी मानने पर सब यथार्थ घट जाता है / आत्मा जब सर्व संवरभाव में आ जाती है, तो क्षायिक चारित्र प्रकट होता है और उससे कर्मबंध-स्वभाववाली योग्यता भी निवृत्त हो जाती है। क्योंकि पूर्व में बता चुके है कि योग्यता का यह स्वभाव ही है, कि कारण पाकर दूर हो जाना है // 498 // स्वनिवृत्तिः स्वभावश्चेदेवमस्य प्रसज्यते / अस्त्वेवमपि नो दोषः, कश्चिदत्र विभाव्यते // 499 // अर्थ : ऐसे (योग्यता को स्वनिवृत्ति स्वभाववाली मानने से) तो इस को भी (आत्मा को भी) स्वनिवृत्ति स्वभाव प्राप्त होगा। यदि ऐसा कहो तो ऐसा मानने में यहाँ कोई दोषापत्ति नहीं // 499 // विवेचन : वेदान्ती कहते हैं कि यदि आप जैन योग्यता को स्वनिवृत्ति स्वभाववाली मानते हैं तो आत्मा को भी स्वनिवृत्ति स्वभाव प्राप्त होगा-लागु पड़ेगा। इस शंका का समाधान करते हुये जैनाचार्य कहते हैं कि आत्मा को वह स्वभाव प्राप्त हो उसमें हमको कोई भी यहाँ दोषापत्ति नहीं है। वेदान्ती कहते हैं कि दोषापत्ति क्यों नहीं ? आत्मा को तो आप भी द्रव्यत्वभाव से नित्य मानते हैं; उसका नाश तुम्हें भी इष्ट नहीं, परन्तु योग्यता नाश से आत्मा का नाश भी प्राप्त होता है यह वस्तु कैसे योग्य हो सकती है ? जैनाचार्य कहते हैं कि योग्यतानिवृत्ति में पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से आत्मा की कथंचिद् निवृत्ति को हम स्वीकार करते हैं / क्योंकि आत्मा कर्मबंध की योग्यता का जितने अंश में त्याग करती है उतने अंश में मोक्ष की योग्यता को अंगीकार करती है / अत: (बहिरात्म का) कथंचिद् नाश मानने में हमको स्याद्वाद सिद्धान्तानुसार कोई भी दोषापत्ति नहीं है // 499 // परिणामित्व एवैतत्, सम्यगस्योपपद्यते / आत्माभावेऽन्यथा तु स्यादात्मसत्तेत्यदश्च न // 500 // अर्थ : आत्मा को परिणामी (स्वभावी) स्वीकार करने पर वस्तु स्वरूप की सिद्धि सम्यक् प्रकार से हो जाती है, अन्यथा आत्मा के अभाव में आत्मसत्ता ही नहीं रहती // 500 / / विवेचन : आप वेदान्तियों ने जो यह कहा कि कर्मबंध की योग्यता की निवृत्ति होने पर वैसे स्वभाववाली आत्मा को निवृत्ति भी प्राप्त होती है, तो वह तो किसी को भी इष्ट नहीं / परन्तु आत्मा को परिणामी स्वभाव वाली मानने पर वस्तु स्वरूप की सिद्धि सम्यक् प्रकार से इस प्रकार