________________ योगबिंदु 287 है, और कर्मवियोगरूप स्थिति के परिपाक को तुम मुक्ति कहते हो, वह भी आत्मा के परिणामी स्वभाव को ही सिद्ध करता है। और परिणामी मानने पर ही योग घटित होता है / कहने का तात्पर्य यह है कि समाधि भी आत्मा का एक परिपक्व परिणाम है और मुक्ति भी एक परिणाम है इसलिये आत्मा को परिणामी ही मानना समुचित है // 496 / / संयोगयोग्यताभावो, यदिहात्मतदन्ययोः / / कृतो न जातु संयोगो, भूयो नैवं भवस्ततः // 497 // अर्थ : आत्मा और कर्म के संयोग की योग्यता का अभाव होने पर वह संयोग पुनः कभी भी नहीं होता और इस प्रकार (कर्म संयोग योग्यता का अभाव होने पर) फिर संसार भी नहीं रहता है // 497 // विवेचन : आत्मा और कर्म का संयोग जिस कारण से होता है वह योग्यता कही जाती है। वह योग्यता आत्मा के साथ अनादि काल से रही हुई है। जब आत्मा योग का आश्रय लेकर अपना पूर्ण आध्यात्मिक विकास साध लेती है, और सर्वकर्मों को क्षय कर देती है तब उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। मुक्तात्मा जब कर्मों के संयोग की योग्यता का नाश कर देती है तब उसे पुनः वह कर्मसंयोग लागु नहीं पड़ता / जैसे जलकर राख हुआ वट का बीज वटवृक्ष की उत्पत्ति नहीं कर सकता / उसी प्रकार मुक्तात्मा के सर्वकर्म जलकर राख हो जाते हैं इसलिये पुनः उन कर्मों का संयोग नहीं हो सकता / जब कर्मों का संयोग नहीं तो आधि, व्याधि, उपाधि युक्त जन्म-मरण रूप संसार भी नहीं रहता // 497|| योग्यताऽऽत्मस्वभावस्तत्, कथमस्या निवर्तनम् / तत्तत्स्वभावतायोगादेतल्लेशेन दर्शितम् // 498 // अर्थ : योग्यता तो इसका (आत्मा का) स्वभाव है, उसकी निवृत्ति कैसे हो सकती है ? संक्षेप में यह बता चुके हैं कि उसका (योग्यता का) वैसा स्वभाव है (कारण पाकर दूर हो जाना) // 498 // विवेचन : परमत वाले शंका उठाते हैं कि आप जैन योग्यता को आत्मा का स्वभाव मानते हैं, तो वह स्वभाव आत्मा में तादात्म्य सम्बंध से रहा हुआ है ? या भिन्न स्वरूप से रहा हुआ है? पर दोनों ही अनुपयुक्त ठहरते हैं / क्योंकि तादात्म्य सम्बंध से अगर आत्मा के उस स्वभाव को माने तो उसकी निवृत्ति-नाश-जुदाई कैसे हो सकती है ? क्योंकि आत्मा तो नित्य है और उसका वह स्वभाव भी नित्य होना चाहिये / उसका नाश-निवृत्ति कैसे हो सकती है ? अगर उस स्वभाव को भिन्न माने तो वह योग्यता सिद्धात्माओं को भी लागु हो सकती है। योग्यता होने से कर्मसंयोग